जिस जाति और धर्म आधारित राजनीतिक मुद्दे की अनुगूंज लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक सुनाई दी इस मुद्दे पर हमने संसद के पहले सत्र में भी शोर शराबे को सुना। भले ही राजनीतिक समीक्षक यह मान रहे हो कि इसका बड़ा नुकसान भाजपा को चुनाव में हुआ है तथा उसकी छवि भी धूमिल हुई है लेकिन इसके बावजूद भी भाजपा का और अधिक दृढ़ता के साथ इस मुद्दे को आगे ले जाने का प्रयास किया जा रहा है। उससे ऐसा लगता है कि भाजपा के पास अब चुनावी नतीजों से पार्टी के अंदर उपजे विद्रोह और असंतोष को थामने का कोई और जरिया ही नहीं बचा है या भाजपा के नेता जानबूझकर ऐसा माहौल तैयार करने में लगे हुए हैं जो केंद्र की मोदी सरकार के गिरने का कारण बन सके। समूचा विपक्ष योगी और धामी सरकार के उस फैसले के खिलाफ खड़ा है जिसमें कावड़ यात्रा मार्गाे पर दुकानदारों को अपनी पहचान उजागर करने के लिए बैनर लगाये जाने का अनिवार्य आदेश दिया गया है। इस फैसले के विरोध में जदयू के नेताओं और चंद्रबाबू नायडू के पार्टी नेता तो कर ही रहे हैं इसके अलावा सरकार को समर्थन देने वाले चिराग पासवान और जयंत चौधरी भी इसका तीखा विरोध कर रहे हैं। भले ही इन दलों की सरकार में भागीदारी सही लेकिन भाजपा की इस नीति से उनके विचार मेल नहीं खाते हैं। जिससे उनके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। भाजपा के इस फैसले के साथ खड़ा होने से उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य खतरे में पढ़ना तय है। यही कारण है कि जयंत चौधरी ने तो यहां तक कह दिया है कि हो सके तो उनके कुर्ते पर उनका नाम लिखवा दो। भले ही भाजपा के नेता और उनके समर्थक अपने फैसले को सही ठहराने के लिए कुछ भी दलीलें पेश कर रहे हो लेकिन इसके पीछे जो उनकी असल मंशा है वह किसी से छुपी नहीं है। ऐसा लगता है कि भाजपा ने भी अब इस मुद्दे पर आर—पार का मन बना लिया है। उसे इसका कितना राजनीतिक नफा या नुकसान होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन उसके तमाम सांसद व विधायक भी इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं कुछ खुलकर अपनी बात कह भी रहे हैं तो कुछ खामोश है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस विवाद से देश के सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना पर चोट पहुंच रही है। कल केंद्रीय सर्वदलीय बैठक में ही इस मुद्दे को उठाया गया और अब इसे लेकर बजट सत्र का भी हंगामी रहने तय है। इसे लेकर अब दायर जनहित याचिकाओं पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। लेकिन इस सबके बीच एक बात साफ है कि इस विवाद को खड़ा किए जाने से बचा भी जा सकता था। इस आस्था की यात्रा को अपवित्र करने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही का रास्ता भी सरकार अपना सकती थी जिससे पूर्व की भांति इस साल भी इस यात्रा का संचालन संभव था लेकिन सत्ता में बैठे लोगों द्वारा विवाद का रास्ता ही चुना जाना ठीक नहीं कहा जा सकता है।