राजनीति में बढ़ती अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की संख्या और दबदबा कितनी गंभीर समस्या है इसे सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा कल की गई उस टिप्पणी से समझा जा सकता है जिसमें कहा गया है कि इस नासूर को खत्म करने के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बीते कल संसद और विधानसभाओं तक आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को रोकने के लिए जो अपने पुराने फैसले में बदलाव किया है तथा राज्य सरकारों द्वारा मुकदमा वापस लेने के लिए हाई कोर्ट की अनुमति जरूरी करने के निर्देश दिए गए हैं यह इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। अब तक सभी राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता में आते ही अपने विधायकों व सांसदों पर दर्ज मुकदमों को वापस लेने का आम चलन रहा है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस नए फैसले, जिसमें कहा गया है कि किसी भी पूर्व या वर्तमान सांसद व विधायक से मुकदमा वापस लेने के लिए हाईकोर्ट से अनुमति लेना जरूरी होगा। अब इन माननीयों से मुकदमे आसानी से वापस नहीं हो सकेंगे क्योंकि राज्य सरकारों को मुकदमा वापस लेने का कारण भी बताना पड़ेगा? यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपने फरवरी 2020 में दिए गए उस आदेश में भी संशोधन कर दिया है जिसमें उम्मीदवार के चयन के 48 घंटों के भीतर या नामांकन की पहली तारीख से 2 सप्ताह पूर्व उनके आपराधिक इतिहास को सार्वजनिक करने व उसकी पूरी जानकारी देने को कहा गया था। अब हर एक प्रत्याशी को अपना अपराधिक इतिहास दो अखबारों में प्रकाशित कराना होगा वह भी 48 घंटे के भीतर तथा वेबसाइट पर भी इसकी जानकारी देनी होगी व 72 घंटे के भीतर चुनाव आयोग को भी रिपोर्ट देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा फरवरी 2020 में दिए गए अपने आदेशों का पालन न किए जाने के कारण ही अपना पुराना फैसला बदलना पड़ा है तथा बिहार चुनाव के दौरान फैसले को न मानने वाले भाजपा कांग्रेस सहित आठ राजनीतिक दलों पर इसके लिए एक लाख से लेकर 5 लाख तक का जुर्माना भी किया गया है। निश्चित तौर पर अदालत द्वारा व्यवस्थाओं में सुधार के लिए इसे एक बड़ी सर्जरी के तौर पर ही देखा जा सकता है। लेकिन हाईकोर्ट के इस अति महत्वपूर्ण फैसले के बाद भी इसका अनुपालन बड़ी चुनौती है। भले ही साल दर साल संसद और राज्यों की विधानसभाओं में अपराधियों व बाहुबलियों की संख्या में होने वाली वृद्धि डराने वाली है लेकिन इन्हें रोक पाने के लिए अब तक किए गए प्रयास कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। क्योंकि राजनीतिक दलों के लिए यह भी चुनाव जीतने के एक औजार बन गए हैं अगर ऐसा नहीं होता तो राजनीतिक दल किसी भी अपराधी को टिकट न देकर नजीर पेश कर सकते थे। जबकि इसके उलट सभी राजनीतिक दल बढ़—चढ़कर अपराधियों को संसद व विधान भवन पहुंचने का मौका देते रहे हैं।