जनसांख्यिकीय असंतुलन का मुद्दा

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी राज्य में जन सांख्यिकीय बदलाव का मुद्दा अहम नहीं है। किसी भी राज्य के अगर कुछ क्षेत्र विशेष में जनसंख्या के घनत्व में यदि असाधारण रूप से बदलाव देखा जाता है तो सत्ता में बैठे लोगों को इस पर न सिर्फ नजर रखनी चाहिए बल्कि इसके पीछे के कारणों को जानने के गंभीर प्रयास भी करने चाहिए। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अगर सूबे के जिलाधिकारियों से इस आशय की जानकारियां जुटाने को कहा है तो इससे दूसरे दलों के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हर समस्या को सिर्फ राजनीति के चश्मे से ही देखा जाना उचित नहीं कहा जा सकता है। राज्य गठन के दो दशकों में सूबे के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में भारी बदलाव आया है। राजधानी दून सहित राज्य के मैदानी और तराई वाले जनपदों में अप्रत्याशित रूप से जनसंख्या का दबाव बढ़ा है। एक तरफ कुछ पर्वतीय जनपदों से लोग पलायन कर दून, हरिद्वार तथा नैनीताल और उधमसिंह नगर की ओर आए हैं वही सीमावर्ती राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब से भी भारी संख्या में लोग उत्तराखंड आकर बसे हैं। इस जनसांख्यिकीय परिवर्तन या असंतुलन का कारण क्या है? इसका सामाजिक और भौगोलिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाना बहुत जरूरी है। इस मामले में दो सबसे अहम और चिंतनीय बातें हैं। पहली बात है धर्म या संप्रदाय विशेष की आबादी के बढ़ने की बात तथा दूसरी है सूबे का सांप्रदायिक माहौल खराब होने की आशंका। यह दोनों ही बातें अगर सत्य है तो निश्चित तौर पर यह एक गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन इस मुद्दे को विधानसभा चुनाव से ऐन पूर्व उठाया जाना यह भी बताता है कि राजनीतिक दल कहीं इस मुद्दे को वोटों के ध्रुवीकरण की नियत से तो हवा नहीं दे रहे हैं? अगर ऐसा है तो यह और भी अधिक चिंतनीय है। क्योंकि हिंदू मुस्लिम और मंदिर मस्जिद की यह राजनीति उत्तराखंड के लिए ठीक नहीं है इसके लिए उत्तर प्रदेश की जमीन ही मुफीद है इसे उत्तर प्रदेश तक ही रहने दें उत्तराखंड तक न लाएं। देखना यह होगा कि चुनाव के समय उठाया गया यह मुद्दा क्या चुनाव के बाद भी मुद्दा बना रहता है तथा राज्य सरकार आने वाले दिनों में भी इसे लेकर उतनी ही गंभीर बनी रहती है जितनी आज दिखाई दे रही है। सरकारों द्वारा जिस पलायन के मुद्दे को लेकर इतना हंगामा खड़ा किया जाता है उसे रोकने के लिए कितने गंभीर प्रयास सरकारों द्वारा किए गए हैं? यह हम सभी जानते हैं। राज्य गठन के बाद पहाड़ों को आबाद होना चाहिए था लेकिन इसके उलट पहाड़ खाली हो रहे हैं।। खुद पहाड़ के नेता भी पहाड़ छोड़कर भाग खड़े हुए हैं तो वह आम जनता को भला क्या रोक पाएंगे? यह एक विचारणीय सवाल है।

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