अब सदन में भी देसी—पहाड़ी

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उत्तराखंड विधानसभा की अध्यक्षा ऋतु खंडूरी ने भले ही संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल और विपक्ष कांग्रेस के विधायकों के बीच देसी और पहाड़ी के मुद्दे पर हुई तू—तू—मैं—मैं को सत्र की कार्यवाही के हिस्से से हटा दिया गया हो लेकिन इस अति निंदनीय सोच का सच विधानसभा सदन में इस कहानी में न सिर्फ सार्वजनिक हुआ बल्कि इसके पीछे निहित राजनीतिक मंसूबों और भविष्य की संभावित सामाजिक खतरों से भी अगाह करता है। जब अलग राज्य भी नहीं बना था तब भी पहाड़ के लोगों को मैदान से आने वालों से यह सवाल किया जाता था कि आप देसी हैं कई लोगों को ऐसे अटपटे सवालों का यह जवाब देते हुए भी देखा गया कि क्या आप विदेशी हैं। देसी और पहाड़ी की बात तो छोड़िए यहां तो गढ़वाली और कुमाऊंनी तथा ठाकुर व ब्राह्मण जैसी कई सामाजिक रेखाएं राज्य गठन से पहले से ही अपनी जड़े इतनी गहरी जमाएं हुए हैं कि इस मानसिकता को ऋतु खंडूरी की यह नाराजगी जो उनके द्वारा कल सदन में जताई गई और वह कथन की यहां कोई कुछ नहीं है हम सब उत्तराखंडी हैं। इन रेखाओं को नहीं मिटाया जा सकता है। सामाजिक विभाजन की इन रेखाओं के बारे में सवाल सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के राजनीतिक दायरे तक सीमित नहीं है और न सदन में संसदीय भाषा तथा माननीयों के आचरण को रेखांकित करने तक है। सवाल उस मानसिकता से जुड़े हुए हैं जिसे बदला जाना संभव नहीं है। दरअसल इस पूरे मामले को जो हवा मिली है वह अभी हाल में हुए निकाय चुनाव हैं। खास तौर पर ऋषिकेश सीट पर शंभू पासवान की जीत से संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल उन लोगों के निशाने पर आ गए हैं जो पहाड़ी और देसी का मुद्दा खड़ा करके उनके खिलाफ एक नरेशन तैयार करने में जुटे हुए हैं। और इसके जरिए अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की रणनीति बना चुके हैं। अभी कांग्रेस विधायक लखपत बडोला का एक बयान आया था जिसमें वह ऋषिकेश एम्स में उत्तर प्रदेश से आने वाले मरीजों पर आपत्ति करते हुए कहते हैं कि क्या हमने अपनी जमीन इसलिए एम्स को दी थी कि यहां राज्य के लोगों की बजाय उत्तर प्रदेश व अन्य बाहर के लोगों का इलाज हो। एम्स के अस्पताल तो केंद्र सरकार के अधीन संचालित होते हैं। क्या उत्तराखंड के लोग एम्स दिल्ली और एम्स चंडीगढ़ में इलाज के लिए नहीं जाते हैं। या उन्हें देश के किसी भी अस्पताल में यह कहकर इलाज करने से मना कर दिया जाता है कि वह उत्तराखंड के हैं इसलिए उनका यहां इलाज नहीं किया जाएगा। योगी आदित्यनाथ जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं क्या उत्तर प्रदेश में इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए था कि वह तो उत्तराखंड (बाहरी राज्य) के मूल निवासी हैं। क्या भीतरी—बाहरी और देसी—पहाड़ी तथा गढ़वाली—कुमाऊनी व पहाड़—मैदान की बात किया जाना अनुचित नहीं है। अभी दिल्ली विधानसभा चुनाव में दो उत्तराखंड के लोग भी विधायक चुने गए हैं वहां तो किसी ने भी यह सवाल नहीं उठाया फिर यहां क्यों इसे इतनी हवा दी जाती है। उत्तराखंड के लोग जिस राज्य में नौकरी कर रहे हो या उनके घर—मकान और व्यवसाय न हो ऐसा कौन सा राज्य है। हर जगह पहाड़ के लोग बड़े पदों पर तथा सार्वजनिक जीवन में काम कर रहे हैं और सम्मान के साथ काम कर रहे हैं लेकिन उत्तराखंड में इस मुद्दे पर जो हवा दी जाती है उसके पीछे कुछ वह लोग ही हैं जिन्हें लगता है कि पहाड़ के लोगों को सबसे अधिक उद्वेलित किया जा सकता तो वह यही सबसे बेहतर और दमदार मुद्दा है जो उनकी राजनीति को चमका सकता है। लेकिन उनकी यह सोच उनके तथा राजनीति के हिसाब से अनुकूल हो सकती है सामाजिक दृष्टिकोण से इस सोच को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह देवभूमि है और यहां सर्व धर्म समभाव तथा सामाजिक समानता सबसे अधिक जरूरी है।

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