सख्त भू कानून का ढिंढोरा

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अलग राज्य बनने के बाद अगर उत्तराखंड में सबसे बड़ा कुछ हुआ तो वह जमीनों की खरीद—फरोख्त में ही हुआ है। जमीनो के इस खेला को जारी रखने में नेताओं और अधिकारियों की भूमिका सबसे अग्रणीय रही है। राज्य गठन के दो दशकों में जो खेला होना था वह हो चुका है अब तो बस इस पर डेंटिंग पेंटिंग का काम ही किया जा सकता है, और वही सब कुछ हो रहा है। बीते कल सूबे की धामी सरकार ने एक बार फिर राज्य के भू कानून को बदलने की मंजूरी दे दी गई है। एनडी तिवारी के कार्यकाल से अब तक कई बार इस भू कानून में संशोधन किए गए 2003 फिर 2008 और 2018 के बाद अब एक बार फिर राज्य के भू कानून में बदलाव के लिए धामी सरकार संशोधन विधेयक लाई है। इन तमाम संशोधनों में 2018 में त्रिवेंद्र के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में जो संशोधन किए गए वह राज्य में जमीनों की लूट खसोट के सबसे बड़े कारण बने। सूबे के जिला अधिकारियों को जमीनों की स्वीकृति देने का अधिकार दिया जाना तथा 12.5 एकड़ भूमि खरीदने की छूट ने राज्य की कृषि और बागवानी की जमीनों की लूट का जो रास्ता खोला इसका भरपूर फायदा भू माफिया ने उठाया और अपना लैंड बैंक खूब मजबूत किया। शहरी क्षेत्र या यूं कहें निकाय क्षेत्र के आसपास की जमीनों की खरीद फरोख्त और फिर उनका लैंड चेंज करने की आसान प्रक्रिया तथा निकाय क्षेत्रों के विस्तारीकरण की आड़ में जो चांदी जमीनों से करी गई वह बड़े मुनाफे का सौदा साबित हुआ। जमीनों के दाम अगर आसमान छू चुके हैं तो उसके पीछे यही कारण रहा है। बात अगर दूंन की करें तो उनके वार्डों की संख्या 60 से बढ़कर 100 हो गई तथा देखते ही देखते दून के ग्रामीण क्षेत्रों के बासमती उगाने वाले खेत और लीची तथा आम के बाग सब कुछ गायब हो गया तथा जमीनों के दाम इतनी ऊंचाई तक पहुंच गये कि सामान्य नागरिक की पहुंच से एक साधारण घर बनाने का सपना भी दूर होता चला गया सिर्फ बड़े—बड़े बिल्डर ही जमीन खरीद पाने और बहूमंजिला भवन बनाकर कमाने के लिए अधिकृत होकर रह गए हैं। धामी सरकार ने जो नया भू कानून बनाया है उसका अब कोई फायदा विशेष होगा इसकी कम ही उम्मीद है क्योंकि चिड़िया तो पहले ही पूरा खेत चुग चुकी है और आगे भी अभी चुगना चाहे तो इस नये कानून में भी सरकार की मंजूरी के बाद जमीन खरीद पाने की जो खिड़की खोलकर रखी गई है उससे चुगती रहेगी। हां यह कहने के लिए बहुत अच्छा है कि त्रिवेंद्र के कार्यकाल में जो छूट दी गई थी उसे जरूर बंद कर दिया गया है लेकिन आम नागरिक को इस नये भू कानून का कोई फायदा होगा ऐसा लगता नहीं है। बाहरी लोगों के लिए तो उत्तराखंड में एक छोटा सा घर बनाने की पहले भी छूट थी और अब भी है। और न इस 250 वर्ग मीटर जमीन की खरीद फरोख्त से जमीनों के खेल पर कोई प्रभाव पड़ने वाला है। सवाल तो उन बड़ी मछलियों का है जिन्होंने कृषि और बागवानी की ही नहीं जंगलों तक की जमीनों को खरीद लिया है। क्या धामी सरकार का नया कानून उनसे जमीनों को वापस छीन लेगा या आगे उन्हें ऐसा नहीं करने देगा। यह सवाल पहले भी बड़ा था और अभी भी बड़ा है। सख्त भू कानून का फिर यह ढिंढोरा क्यों पीटा जा रहा है।

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