नतीजों से सबक ले कांग्रेस

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निकाय चुनावों के नतीजे आ चुके हैं। निसंदेह भाजपा ने इन चुनाव में अपने दावों के अनुरूप सफलता हासिल की है। 11 नगर निगमों में से 10 निगमों में जीत दर्ज की है जबकि कांग्रेस एक भी निगम में अपना प्रत्याशी नहीं जिता सकी। एकमात्र सीट श्रीनगर पर जहां भाजपा नहीं जीत सकी और निर्दलीय प्रत्याशी जीती उसके भी अब भाजपा के साथ जाने की चर्चा है। यानी निगमों में भाजपा की सफलता 100 फीसदी रही है जबकि पूर्ववर्ती चुनाव में यह सफलता 66 फीसदी थी व नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों में भाजपा की औसत सफलता 50 फीसदी के आसपास तो है ही जबकि 50 फीसदी में से 25 फीसदी पर कांग्रेस और 25 फीसदी पर निर्दलीय प्रत्याशी जीत सके हैं। कांग्रेस के लिए निकाय चुनावों में मिली इस हार पर आत्म चिंतन करने की जरूरत है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हार के इस निरंतर सिलसिले को कांग्रेस तोड़ नहीं पा रही है। बात चाहे लोकसभा चुनाव की हो या फिर विधानसभा चुनावों की अथवा वर्तमान में हुए निकायों के चुनाव की जिन्हें लोकल बॉडी का चुनाव कहा जाता है। खास बात यह है कि किसी भी राज्य में होने वाले किसी भी चुनाव में जब इस तरह की हार होती है तो राज्यों की कांग्रेस इकाइयों के नेता हार को राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कांग्रेस की कमजोरी से जोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। जबकि यह सच नहीं है कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को इस हार की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस की बात करें तो राज्य के जितने भी वरिष्ठ नेता हैं वह सभी अपनी—अपनी ढाई चाल की अलग—अलग खिचड़ी पकाते रहते हैं। सभी नेताओं का हाल यह है कि वह अपने से बड़ा नेता किसी को भी नहीं मानते हैं। न कोई किसी की वरिष्ठता को स्वीकार करने को तैयार होता है और न किसी की कोई बात सुनने समझने की जरूरत समझता है। कांग्रेस विधायक मयूख महर ने अगर पार्टी से बगावत कर अपने प्रत्याशी को चुनाव मैदान में न उतारा होता या फिर कांग्रेस ने मयूख महर के समर्थन वाली प्रत्याशी को ही टिकट दिया होता तो पिथौरागढ़ में कांग्रेस को जीतने से कोई नहीं रोक सकता था। देहरादून के महापौर पद पर भाजपा 15 साल से कब्जा बनाए हुए हैं। इस बार भी भाजपा प्रत्याशी ने एक लाख से भी अधिक मतों से जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस के पास पूर्व महापौर गामा के खिलाफ तमाम भ्रष्टाचार के आरोप व आय से अधिक संपत्ति कमाने, स्मार्ट सिटी के कामों में धांधली व गुणवत्ता की कमी शहर की बदहाल सड़कों व यातायात व्यवस्थाओं तथा मलिन बस्तियों के नियमितीकरण जैसे तमाम प्रभावी मुद्दे मौजूद थे लेकिन अपने प्रत्याशी को एकजुट होकर चुनाव न लड़ा पाने के कारण इस बार भी उसे हार का मुंह ही देखना पड़ा। दरअसल कांग्रेसी नेता सिर्फ अपने केंद्रीय नेतृत्व के दम पर ही सब कुछ करना चाहते हैं उनमें अपना कोई दम शेष नहीं बचा है। राहुल गांधी, सोनिया गांधी व मल्लिकार्जुन केंद्र में कांग्रेस की सरकार लाएं चाहे पैदल देश नापे या जनता के बीच चीख—चीख कर अपना गला सूखा डालें राज्यों के नेता कांग्रेस के लिए कुछ नहीं करेंगे उनकी सोच है कि केंद्र में कांग्रेस मजबूत होगी तो राज्यों में वह और उनकी पार्टी अपने आप मजबूत हो जाएगी। राज्यों में कांग्रेसी अगर कुछ नहीं करेंगे तो केंद्र में भी कोई बदलाव नहीं हो सकता है। जब तक कांग्रेसी नेताओं को यह बात समझ में नहीं आएगी तब तक कांग्रेस के हालात को कोई नहीं बदल पाएगा। राज्य में विधानसभा के दो उपचुनाव में जीत का भूत अब निकायों की इस हार के बाद कांग्रेसियों के सर से उतरता है या नहीं यह आने वाला समय ही बताएगा।

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