राजनीति सिर्फ सत्ता के लिए या फिर जन सरोकारों के लिए? वर्तमान में इस सवाल का जवाब हर आम आदमी जानता है। यही कारण है कि किसी भी चुनाव के परिणाम के बारे में जानना समझना असंभव हो चुका है। 2024 में हुए लोकसभा चुनाव से अब तक जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं उनके चुनावी नतीजो को अविश्वसनीय ठहराया जाना इसका प्रमाण है। फरवरी 2025 में होने वाले संभावित दिल्ली विधानसभा के चुनाव को लेकर अभी से तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे हैं लेकिन इनका कोई पुख्ता आधार नहीं है। देश में जो गठबंधन की राजनीति का दौर 1970 के दशक में शुरू हुआ था उस गठबंधन की राजनीति की रस्सी में इतनी गांठे लग चुकी है कि वह सिर्फ सत्ता में भागीदारी का जरिया मात्र बन गई है। लोकसभा चुनाव से पूर्व जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार की पहल पर इंडिया गठबंधन बनाया गया था चुनाव में जाने से पूर्व ही उसका क्या हश्र हुआ यह हमारे सामने है। यह भी हमारे सामने है कि अगर इंडिया ब्लॉक ने पूरी एक जुटता के साथ 18वीं लोकसभा का चुनाव लड़ा होता तो बीते साल ही मोदी और उनकी सरकार की विदाई हो चुकी होती। इन तमाम बातों का उल्लेख करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि गठबंधन के इस राजनीतिक खेला से देश की राजनीति में विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो चुकी है गठबंधन की राजनीति के प्रथम चरण में कांग्रेस जो देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी, ने स्वयं को इससे अलग रखते हुए एकला चलो की नीति को अपनाया था लेकिन लंबे समय तक सत्ता से अलग थलग रहने और अपने लगातार गिरते वोट प्रतिशत ने उसे गठबंधन की राजनीति में आने पर विवश कर दिया। जिसके परिणाम स्वरुप वह भले ही सत्ता में भागीदारी पाने में तो सफल रही हो लेकिन उसे इससे जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई वह आज तक भी नहीं कर सकी है। कांग्रेस को अब जाकर यह समझ आया है कि जब तक वह स्वयं हैवी वेट नहीं बन सकेगी सत्ता का नेतृत्व उसे नहीं करने दिया जाएगा। दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर अपने दम पर चुनाव मैदान में जाने का फैसला लिया है। आम आदमी पार्टी जो उसे बहुत कम सीटें देने पर आमादा थी, अब तक कांग्रेस 47 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है। पूर्व सीएम अरविंद केजरीवाल के खिलाफ उसने पूर्व सीएम शीला दीक्षित के बेटे और वर्तमान सीएम आतिशी के खिलाफ आप छोड़कर कांग्रेस में आई अलका लांबा को अपना प्रत्याशी बनाकर चुनाव मैदान में उतारने का फैसला लिया है। बात अगर इंडिया ब्लॉक की करें तो अब तक जहां ममता बनर्जी उसकी कमान संभालने की उत्सुकता दिखा रही है वही पर्दे के पीछे से नीतीश कुमार जो अब पलटू राम के नाम से मशहूर हो चुके हैं राजनीतिक खेला करने पर तुले हैं लेकिन अब कांग्रेस उनके किसी जाल में फंसने वाली नहीं है कांग्रेस के नीतिकार अब सभी क्षेत्रीय दलों की उस राजनीति को अच्छे से समझ चुके हैं जिसके दम पर वह नेता सत्ता शीर्ष पर तो पहुंचना चाहते हैं परंतु कांग्रेस को कोई श्रेय या उचित सम्मान देने को तैयार रही है। लोकसभा चुनाव के नतीजो के बाद से ही कांग्रेस का मनोबल हाई है और अब जो कुछ हासिल करना चाहती है अपनी मेहनत के दम पर ही करने का मन बना चुकी है देखना होगा कि उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने में कब तक सफलता मिलती है? और कितनी सफलता मिल पाती है।





