वन नेशन, वन इलेक्शन की गाड़ी पंचर

0
280


केंद्र सरकार द्वारा लंबे समय से वन नेशन वन इलेक्शन का प्लान कल अपने पहले ही चरण के प्रशिक्षण में फेल हो गया। सत्ता पक्ष संसद में इस बिल का प्रस्ताव लाने के परीक्षण में असफल रहा और वह सदन में मौजूद सांसदों का दो तिहाई बहुमत हासिल नहीं कर सका। जिसके कारण वक्फ बोर्ड विधेयक की तरह इस प्रस्ताव को भी जेपीसी को सौंप दिया गया। सीधे तौर पर आप इसे अब ठंडे बस्ते में डालना मान सकते हैं। 18वीं लोकसभा के गठन के बाद एक बार फिर यह साबित हो चुका है कि अब सत्ता में बैठी सरकार नीतियों के निर्धारण में अपनी मनमानी नहीं चला सकती है जैसा कि बीते 10 सालों में चलाती रही है। विपक्षी एकता के बिखराव के बाद कल के इस घटनाक्रम को मोदी सरकार की बड़ी पराजय और विपक्ष की एकजुटता के रूप में भी देखा जा रहा है। मोदी के नेतृत्व में 2014 में भाजपा की सरकार पहली बार केंद्रीय सत्ता पर काबिज हुई थी तब भले ही किसी को इस बात का एहसास हुआ हो या न हुआ हो लेकिन 10 साल के उसके कार्यकाल में अब सरकार का एजेंडा किसी से भी छुपा नहीं रहा है। वन नेशन वन इलेक्शन अब उसका आखिरी दांव माना जा रहा था। संसद में अभी प्रियंका गांधी ने अपने संबोधन में कहा था कि देश संविधान से चलेगा संघ के विधान से नहीं। संघ जिसका एकमात्र एजेंडा हिंदू राष्ट्र है उसके लिए संवैधानिक संस्थाओं को निष्प्रभावी बनाने और विपक्ष विहीन संसद की जो परिकल्पना की जा रही थी तथा संविधान बदलने की बात भी खुल्लम—खुल्ला की जाने लगी थी उसने राजनीति के पासे को पलट दिया है। देश को जब स्वतंत्रता मिली थी तब देश ने अपने लोकतंत्र की शुरुआत वन नेशन वन इलेक्शन से ही की थी लेकिन देश में दो—तीन चुनाव के बाद ही यह मिथक टूट गया संविधान में देश के जिस संघीय ढांचे की परिकल्पना की गई है उसमें वन नेशन वन इलेक्शन की व्यवस्था को बनाए रखना संभव नहीं है। राज्यों की विधानसभाओं के किसी भी सूरत में भंग होने या केंद्र सरकार के अपने कार्यकाल से पहले निष्क्रिय हो जाने पर राज्यों की निर्वाचित सरकार को भंग करना संवैधानिक दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। सवाल यह है कि जब वन नेशन वन इलेक्शन का कॉन्सेप्ट न तो व्यावहारिक और न संवैधानिक है तब सरकार देश में क्यों वन नेशन वन इलेक्शन पर अड़ी हुई है। अगर यह व्यावहारिक होता तो इसे बदला ही क्यों जाता। वर्तमान समय में सरकार की तरफ से जो भी तर्क इसके पक्ष में दिए जा रहे हैं उन्हें कुतर्क ही कहा जा सकता है। अगर विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराये जाते हैं तब भी पंचायत और निकाय के चुनाव तो अलग से ही कराये जाएंगे फिर काहे का वन नेशन वन इलेक्शन होगा। अगर राज्यों की विधानसभाएं कहीं भी भंग होती है तब क्या लोकसभा इलेक्शन चुनाव नहीं कराये जाएंगे या अगर किसी कारणवश केंद्र सरकार गिर जाती है तो क्या सभी राज्यों की निर्वाचित सरकारों को भी भंग कर वहां फिर चुनाव कराए जाएंगे। सरकार चुनावी खर्च को कम करने या चुनाव आचार संहिता के दौरान विकास कार्यों को प्रभावित होने की बात कह रही है वह कितनी व्यावहारिक है। चुनाव आयोग जब एक समय में एक राज्य में एक साथ चुनाव नहीं करा सकता तो पूरे देश में एक साथ चुनाव कैसे करा पाएगा। ऐसा लगता है कि जैसे वर्तमान केंद्र सरकार असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए वन नेशन वन इलेक्शन जैसे बेवजह और बेकार के मुद्दे खड़े कर रही है। बात चाहे विकसित भारत जैसे शगुफे की हो या फिर वन नेशन वन इलेक्शन की इस सरकार के पास अब देश के राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक भविष्य के लिए कोई ठोस कार्य योजना बची ही नहीं है। सरकार जो भी काम कर रही है उन सभी कामों को लेकर वह सिर्फ अपनी फजीहत कराने में ही लगी हुई है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here