बीते कल देश के संसदीय इतिहास में जो कुछ घटित हुआ वह हमेशा हमेशा के लिए काले अक्षरों में दर्ज हो चुका है। यह इतिहास लिखा गया है राज्यसभा के सभापति और देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के नाम। राज्यसभा के सभापति धनखड़ पर अत्यंत ही गंभीर आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया है। लोकसभा या राज्यसभा के स्पीकर के खिलाफ विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाने पर विवश होना पड़ा हो यह पहली बार हुआ है। सरकारों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाना तो देश के लोग कई बार देख चुके हैं लेकिन सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव इससे पहले कभी नहीं लाया गया। जिन 60 सांसदों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं उनका कहना है कि वह विपक्ष के विरोध को अपमानजनक तरीके से रोकते हैं। तथा बेहद पक्षपात पूर्ण तरीके से सदन का संचालन करते हैं और अपने विशेषाधिकारों का गलत प्रयोग करते हैं। अभी बीते दिनों सांसद जया बच्चन के साथ उनकी तीखी नोक—झोक का एक वीडियो वायरल हुआ था जो काफी चर्चाओं में रहा था। जिसमें वह जया बच्चन को यह कहते हुए धमका रहे हैं कि वह उन्हें नहीं जानती है कि वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो आउट ऑफ वे भी जा सकते हैं। सदन में उपराष्ट्रपति की कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे के साथ भी खूब गर्मा गर्मी हो चुकी है जब उन्होंने खड़गे के वक्तव्य में प्रयोग किए गए गौतम अडानी के नाम को संसदीय कार्यवाही से हटवा दिया था। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद संसद के दोनों ही सदनों की कार्यवाही नहीं चल पा रही है विपक्ष का आरोप है कि उनके द्वारा दोनों ही सदनों में जो भी मुद्दे उठाए जाते हैं उन पर चर्चा की अनुमति नहीं दी जाती है परिणाम स्वरुप हंगामा ही हंगामा होता है। बात अगर राज्यसभा की की जाए तो जगदीप धनखड़ के 2022 में उपराष्ट्रपति बनने के बाद 42 विषय पर विपक्ष ने नियम 267 के तहत चर्चा करने की मांग की गई है लेकिन उन्होंने एक बार भी किसी भी मुद्दे पर चर्चा कराने की स्वीकृति नहीं दी। अगर इतिहास पर गौर करें तो अंतिम बार जब वेंकैया नायडू सभापति थे उन्होंने नोटबंदी के मुद्दे पर 267 के तहत चर्चा कराई थी। भ्ौरव सिंह शेखावत द्वारा सभापति रहते हुए अपने कार्यकाल में तीन और हामिद अंसारी ने चार बार नियम 267 के तहत चर्चा कराई थी। फिर आखिर ऐसा क्या हो गया है कि अगर विपक्ष 267 के तहत चर्चा की मांग करता है तो उसे दुत्कार कर चुप कर दिया जाता है। भले ही सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष पर संसद की कार्यवाही न चलने देने का आरोप लगाया जाता रहता है लेकिन विपक्ष का कहना है कि सरकार ही नहीं चाहती है कि सदन में किसी मुद्दे पर चर्चा हो या सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चले। सवाल यह नहीं कि उपराष्ट्रपति के खिलाफ लाया गया यह अविश्वास प्रस्ताव गिरेगा या बचेगा अपने आप में उपराष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को लाया जाना ही उपराष्ट्रपति पद की गरिमा के सवाल से जोड़ता है। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों को इससे भी कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है वहीं विपक्ष ने भी अब इस बात के लिए कमर कस ली है कि उसे चाहे किसी भी हद तक जाना पड़े लेकिन वह अब इस तरह की तानाशाही के खिलाफ किसी भी हद तक जाएगा। उपराष्ट्रपति के बाद अब मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ भी ऐसा ही कुछ हो सकता है लेकिन इस देश की राजनीति में इस दौर में जो कुछ घटित हो रहा है वह भावी भविष्य के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। संवैधानिक पदों पर बैठे राज्यपाल हो या फिर सभापति उन्हें अपने सम्मान की रक्षा करनी है तो उनका निष्पक्ष होना जरूरी है। क्योंकि वह किसी दल या पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।





