देश की राजनीति इन दिनों अविश्वास के अंधेरे में भटक रही है। नेताओं द्वारा देश की जनता से जो कुछ कहा जाता है उस पर भरोसा नहीं रहा। देश की वह संवैधानिक और स्वायत्तधारी संस्थाएं जिन पर लोगों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी वह निष्पक्षता के साथ अपना काम नहीं कर रही है। मीडिया सत्ता की चाटुकारिता के जरिए सिर्फ अपनी ताकत दिखाने में जुटा है। शासन—प्रशासन में बैठे अधिकारी सत्ता की हां में हां मिलाकर अपने कर्तव्यों को पूरा करने की खाना पूर्ति कर रहे हैं। लोकतंत्र और संविधान बचाने के जो सवाल आज सबसे बड़े सवाल हो गए हैं वह यूं ही या फिर अचानक बड़े नहीं हो गए। 2024 के लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद विपक्ष के थोड़ा मजबूत होने और संख्या बल बढ़ने के कारण अब संसद में हंगामा और अधिक बढ़ चुका है। वही संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के मुद्दे भी पहले से अधिक तीखे हो चुके हैं। आज दिल्ली में सी डब्ल्यू सी की महत्वपूर्ण बैठक हो रही है। इस बैठक में जिस मुद्दे पर विचार किया जा रहा है वह चुनावों की निष्पक्षता, निर्वाचन आयोग की भूमिका और ईवीएम में की जाने वाली चुनावी धांधली से जुड़ा है। कांग्रेस इस मुद्दे पर समूचे विपक्ष को साथ लेकर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की तैयारी कर रही है। दरअसल ईवीएमं को लेकर लंबे समय से जो आशंकाएं जताई जा रही है उन्हें अभी हाल ही में संपन्न हुए हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में और भी अधिक बल प्रदान किया है। समूचा विपक्ष और आम जनता एक स्वर से इन चुनावी नतीजो को अकल्पनीय और अविश्वसनीय बता रहे हैं। ईवीएम मशीन में जहां तक किसी तकनीकी खामी की बात है वह वास्तव में कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि अगर कोई चाहे तो ईवीएम का गलत प्रयोग कर सकता है या नहीं? इसमें कोई संदेह किसी को भी नहीं होना चाहिए कि मशीन चाहे कोई भी सही उसका गलत प्रयोग संभव है। यह गलत प्रयोग निर्वाचन आयोग के स्तर पर अगर किया जा रहा है तो फिर इससे ज्यादा चिंताजनक बात कुछ नहीं हो सकती है। आज तकनीकी क्रांति के दौर में सूचनाओं का सटीक आदान—प्रदान पहले से कई गुना ज्यादा सरल काम हो चुका है फिर ऐसी कौन सी बात है कि मतदान के 6 घंटे बाद या 6 दिन बाद तक भी निर्वाचन आयोग मतदान का सही प्रतिशत नहीं बता पा रहा है। महाराष्ट्र के चुनाव में चुनाव आयोग ने तीन बार इस आंकड़े में संशोधन किया तथा 7—8 फीसदी मतदान बढ़ा दिया गया जिसका मतलब होता है 9 लाख मतों का बढ़ना। जबकि पूर्व अनुभवों के अनुसार मतदान प्रतिशत में कभी एक फीसदी से अधिक बढ़त नहीं होती थी। जब एक—दो प्रतिशत मत इधर—उधर होने पर कोई दल हार या जीत सकता है तो फिर 7—8 प्रतिशत मत बढ़ने पर क्या नहीं हो सकता। 90 सीटें ऐसी है जिनके परिणाम इससे बदल गए। विपक्ष ईवीएम की जगह वैलिड पेपर से चुनाव कराने की मांग करता रहा है। कुछ लोगों का कहना तो यहां तक है कि जब चुनावी नतीजों को इसी तरह से पेश किया जाना है तो चुनाव कराने की भी जरूरत क्या है। यह सच भी है कि अगर चुनाव को निष्पक्ष नहीं कराया जा सकता तो न चुनाव का कोई मतलब है न लोकतंत्र और संविधान का कोई महत्व शेष रह जाता है। इस अविश्वास की राजनीति का सच अब आम आदमी भी समझने लगा है। मतदाताओं को यह पता होता है की हवा का रुख क्या है क्योंकि वोट तो उसी के द्वारा किया जाता है अब अगर चुनावी नतीजे मतदाताओं की इच्छा के एकदम विपरीत आते हैं तो उससे आम जनता का विश्वास उठना भी तय है और आज के वर्तमान दौर में ऐसा ही हो भी रहा है। देखना यह है कि इस अविश्वास की राजनीति का अंत कब होता है और कैसे होता है।