उत्तराखंड के हजारों उपनलकर्मी बीते 6—7 साल से अपने नियमितीकरण की लड़ाई लड़ रहे हैं। सड़कों से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक संघर्ष के बावजूद भी उनकी समस्या का कोई समाधान होता हुआ नहीं दिख रहा है। खास बात यह है कि सत्ता में बैठे नेता व अधिकारी इन कर्मचारियों की समस्या के समाधान करने की बजाय इसे लटकाए रखना चाहते हैं यही कारण है कि वह अदालत के आदेश को भी मानने को तैयार नहीं है। अभी बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार की एसएलपी को खारिज कर दिया गया था और हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए सरकार को उपनल कर्मियों के नियमितीकरण तथा अन्य सुविधाएं देने के आदेश दिए गए थे। लेकिन सरकार द्वारा इन उपनलकर्मियों को समस्या समाधान का भरोसा दिलाकर कह दिया गया था कि 25 नवंबर तक सरकार को वह समय दे। उपनल कर्मियों को ऐसा लगा कि शायद सरकार अब उनकी समस्या का समाधान करने का मन बना चुकी है। लेकिन हुआ इसके उलट, सरकार ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर यह साबित कर दिया कि वह इस मामले को लटकाए ही रखना चाहती है। यही कारण है कि उपनल कर्मचारी संघ ने फिर से सरकार के खिलाफ कानूनी लड़ाई शुरू कर दी है। उपनल कर्मियों ने हाईकोर्ट में अपील दायर करते हुए सरकार पर न्यायालय की अवमानना का आरोप लगाया है। उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि 2018 को जनहित याचिका पर न्यायालय ने सरकार को जो आदेश दिया था कि वह 1 साल के अंदर इन कर्मचारियों के नियमितीकरण का रास्ता निकाले और उनके वेतन भत्तों में कोई कटौती न करें, का राज्य सरकार द्वारा अवमानना की जा रही है। सालों बीत जाने के बाद सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया है जबकि सुप्रीम कोर्ट से सरकार की एसएलपी को खारिज किया जा चुका है। अब हाईकोर्ट द्वारा मुख्य सचिव को न्यायालय की अवमानना का नोटिस दिया गया है। स्वाभाविक है कि जिस कानूनी लड़ाई को उपनल कर्मियों द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से जीता जा चुका है वह सरकार को मानना ही पड़ेगा। हाईकोर्ट के अवमानना नोटिस के बाद अब सरकार को समझ नहीं आ रहा है कि वह क्या करें? सूबे के शासन प्रशासन को 24 दिसंबर तक इस अवमानना नोटिस का जवाब देना है। सवाल यह है कि इस तरह की अंधेरगर्दी कब तक चल सकती है। मामला सिर्फ उपनल कर्मियों के नियमितीकरण का ही नहीं है। अन्य तमाम ऐसे मामले हैं जिनका सरकार कोई समाधान नहीं ढूंढ़ पा रही है। राज्य में 528 से अधिक अनियमित बस्तियों के नियमितीकरण के मामले में भी सरकार द्वारा इसी तरह से उलझा कर रखा हुआ है। हाईकोर्ट द्वारा इन अवैध बस्तियों को हटाने के आदेश दिए जाने के बाद सरकार हर बार अध्यादेश लाकर इस मामले को आगे बढ़ाती जा रही है। न तो वह इन मलिन बस्तियों को नियमित कर पा रही है न ही इन पर बुलडोजर चलवा पा रही है सवाल यह है कि न्यायालय और कानूनी दांव पेचों में किसी भी मामले को कोई सरकार कितने समय तक लटकाए रख सकती है? सत्ता परिवर्तन के बाद यह संकट आने वाली सरकार के पाले में चला जाता है लेकिन संकट तो बरकरार ही रहता है।




