ट्टमेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है, इस फिल्मी गाने को हर भारतीय ने जरूर सुना होगा। आज इस माने का संदर्भ हमें शायद इसलिए लेना पड़ा है क्योंकि हम आज देश की उसे जातीय और वर्ग व्यवस्था पर अपनी बात कहना चाहते हैं वह शायद ज्यादा आसानी से आप तक पहुंच सकेगी। कल राहुल गांधी महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक दलित साहू पटोले के घर जा पहुंचे और वह सिर्फ उनके घर तक या आप कहें अंगने तक ही नहीं गए उनके किचन तक गए। जहां उन्होंने साहू परिवार के साथ न सिर्फ खाना बनवाया या बनाया बल्कि उनके साथ बैठकर खाना खाया। नेताओं के दलितों के घर जाकर खाना खाने की बहुत सारी तस्वीरें और खबरें अब तक बीते कुछ सालों में आप देखते रहे होंगे लेकिन इसका वीडियो व साहू परिवार के साथ उनकी बातचीत देख और सुनकर हमें लगा कि इस खाने और अब तक के नेताओं के दलित भोज में कुछ तो खास है जिसे सभी के साथ शेयर किया जाना चाहिए? राहुल गांधी ने साहू से साफ कहा कि मैं आपके घर यह जानने के लिए आया हूं कि दलित बनाते क्या है और खाते क्या है उन्होंने साहू से जातियां के भेदभाव और छुआछूत पर समाज की वर्तमान स्थिति पर बड़ी बेबाकी से बात की और इसकी हकीकत जानकर यह भी पूछा कि क्या आपको लगता है कि इसका अंत हो सकता है तो साहू ने भी कहा कि नहीं इसका अंत संभव है उन्हें नहीं लगता है। भले ही दलित और पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो जाए लेकिन उन्हें समाज में समानता और बराबरी का अधिकार नहीं मिल सकता है। साहू बड़े सरकारी अधिकारी पद से सेवा निवृत हुए हैं उनका कहना है कि उनके पड़ोस में स्वर्ण परिवार रहता है लेकिन उनका कभी हमारे यहां घर आना—जाना नहीं होता है साथ ही वह कहते हैं कि आज भी समाज की तस्वीर यही है किसी नीची जाति के व्यक्ति यदि उनके बर्तन को छू लेता है तो या तो उसे इस्तेमाल से बाहर कर दिया जाता है या जला दिया जाता है। निश्चित तौर पर राहुल गांधी के लिए एक अलग तरह का अनुभव होगा क्योंकि वह कभी गांव देहात में नहीं रहे हैं। हां अब राजनीति के वह उस मुकाम पर जरूर पहुंच गए है कि उन्हें हर जाति धर्म व वर्ग के लोगों की हर स्थिति को जानना व समझना जरूरी है जिसकी वह हर संभव कोशिश भी करते दिख रहे हैं एक समय था जब उनके पिता स्व. राजीव गांधी का विपक्षी दल के नेता यह कहकर मजाक बनाते थे कि उन्हें तो यह पता नहीं है कि गुड़ की भेली गन्ने के पेड़ पर कहां लगती है। देश में इस समय राजनीति के लिए दलित इतने महत्वपूर्ण हो चुके हैं कि उनके वोट के बिना कोई दल या नेता अब सत्ता तक नहीं पहुंच सकता है। यह पहले भी ऐसा ही था काशीराम ने इसे समझ कर ही बसपा की स्थापना की थी जिसके बूते पर मायावती जैसी नेता उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की मुख्यमंत्री बन सकी। अभी हरियाणा के चुनाव में दलित राजनीति के कई वाक्ये चर्चाओं में रहे। खैर इसमें कोई संदेह नहीं है कि महात्मा गांधी और नेहरू ही ऐसे व्यक्ति थे जो डा. भीमराव अंबेडकर के बाद दलित की बराबरी व समानता के धुर समर्थक थे। जो देश के समग्र विकास की कल्पना विभेद और छुआछूत रहित समाज में करते थे। बीते दशकों में तो दलित और पिछड़ों के जो मसीहाई नेता व राजनीतिक दलों द्वारा की जाती रही वह सिर्फ अपने सत्ता स्वार्थ पर ही केंद्रित रही है। आज के नेता दलितों के यहां भोज का जो स्वांग करते हैं वह डिस्पोजल बर्तनों में पहले ही दलितों के घर होटल से खाना भिजवा देते हैं और जमीन पर बैठकर दलित के घर खाना खाने की फोटो शूट करवा लेते हैं। यहां सब कुछ मैनेज किया जाता है, यह अलग बात है। इन नेताओं द्वारा होटल व रेस्टोरेंट से जो खाना खाया जाता है उन्हें यह पता नहीं होता कि उनसे पहले इन बर्तनों में किस जाति या धर्म के लोग और कितने लोग खाना खा चुके हैं। लेकिन प्रत्यक्ष में आज भी समाज की सोच इससे आगे नहीं बढ़ सकी है कि उनके अंगने में तुम्हारा क्या काम है।