उत्तराखंड की धामी सरकार के लिए अब भू कानून गले की हड्डी बनता जा रहा है। इसकी मांग इतनी तेजी से आगे बढ़ रही है कि राज्य आंदोलन की तरह भू—कानून आंदोलन भी अब एक जन आंदोलन बनता जा रहा है बीते कल ऋषिकेश की महारैली में उमड़ी रिकॉर्ड भीड़ देखकर तो यही लगता है कि अब इसे रोक पाना संभव नहीं है। सवाल यह है कि जब मुख्यमंत्री लगातार इस बात का भरोसा दिला रहे हैं कि वह जल्द ही जन अपेक्षाओं के अनुरूप सख्त भू कानून लाने जा रहे हैं यही नहीं उन्होंने बजट सत्र में कानून लाने की बात कही है। क्या सूबे के लोगों को उनकी बात का भरोसा नहीं है या फिर इस आंदोलन के पीछे कुछ अन्य कारण निहित है। मुख्यमंत्री या भाजपा के नेता जिस ढाई सौ वर्ग मीटर जमीन खरीद की बात कर रहे हैं इसकी आड़ में लोगों ने परिजनों के नाम से भी जमीन खरीद कर लैंड बैंक बना लिया। असल मुद्दा वह नहीं है बल्कि असल मुद्दा है 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा उघोगों व निवेशकों के लिए जमीन की क्रय सीमा को समाप्त किया है। इससे पूर्व राज्य में कोई भी व्यक्ति 12.5 हेक्टेयर से अधिक जमीन ही खरीद सकता था लेकिन त्रिवेंद्र रावत ने सीलिंग की इस सीमा को तोड़ दिया इसके बाद पहाड़ में बड़ी प्रचुर मात्रा में जमीनों की खरीद फरोख्त हुई मुंबई, मद्रास, कोलकाता और गुजरात से लेकर दिल्ली तक के धन्ना सेठो ने जमीनें खरीद डाली। खास बात यह है कि इसमें बड़ी संख्या में भाजपा और संघ से जुड़े नेताओं की जमीन भी बताई जा रही है। सवाल यह भी चर्चाओं के केंद्र में है कि त्रिवेंद्र रावत ने यह फैसला केंद्र सरकार के इशारे पर लिया था। मुख्यमंत्री धामी द्वारा जो बजट सत्र में सख्त कानून लाने की बात कही गई है उस पर कांग्रेस नेता गणेश गोदियाल ने कहा है कि अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे। इसका मतलब पूछे जाने पर वह कहते हैं कि क्या त्रिवेंद्र ने अपनी मर्जी से सीलिंग की सीमा हटाई थी या फिर क्या धामी अपनी मर्जी से सख्त भू कानून लेकर आ सकते हैं। उनका तो यहां तक कहना है कि बजट सत्र में तो बहुत लंबा समय है उन्हें चाहिए कि वह इस मुद्दे पर तत्काल प्रभाव से एक समिति गठित करें जिसमें सभी राजनीतिक दलों व विशेषज्ञों को शामिल करें। अन्यथा तो यह मान लिया जाना चाहिए कि वह इसे टालने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि इसकी जटिलताओं का उन्हें बोध है। लेकिन पहाड़ की भोली भाली जनता जो बीते दिनों गैरसैंण में महारैली में पहुंची थी और कल ऋषिकेश की सड़कों पर उतरी थी उसे वास्तव में इस मुद्दे की असल जानकारी नहीं है उसे तो बस इतना पता है कि पहाड़ में बाहर से आकर लोग जमीनें खरीद रहे हैं तथा बड़े—बड़े रिजार्ट बना रहे हैं उनकी जमीन चली जाएगी तो खाएंगे क्या? वैसे भी उत्तराखंड में कुल क्षेत्रफल का सिर्फ 19 फीसदी ही कृषि भूमि है। इस पर अब दूसरे राज्यों के लोगों का कब्जा हो जाएगा उघोग—धंधे तो पहले से ही नहीं है रोजगार नहीं, धंधा नहीं और अगर जमीन भी नहीं होगी तो बचेगा क्या? सिर्फ मजदूरी करने के सिवाय। समस्या गंभीर भी है जटिल भी है। जिन्होंने भी जमीन खरीदी है वह राज्य के भू कानून के अनुसार ही खरीदी होगी। मुख्यमंत्री सारी जमीनों की जांच कराने की जो बात कह रहे हैं क्या वह आसान काम है या फिर चंद दिन में ही संभव है। कानूनी तौर पर खरीदी गई जमीन को सरकार कैसे गैर कानूनी बताकर सरकार में निहित कर सकती है। इसलिए यह सभी बातें हवा हवाई ही लगती है लेकिन इस मुद्दे पर खड़े हुए आंदोलन ने सरकार की नींद जरूर उड़ा दी है कानून जब आएगा तब आएगा।