लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और इंडिया गठबंधन द्वारा प्रमुखता से उठाए गए जातीय जनगणना के मुद्दे पर अब देश के प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच महासंग्राम छिड़ चुका है। इस चुनाव में संविधान की प्रति हाथ में लेकर घूमने वाले राहुल गांधी अभी इस बात का दावा कर रहे हैं कि वह हर हाल में देश में कास्ट सेंसस करा कर रहेंगे तथा 50 फीसदी की आरक्षण सीमा को तोड़ा जाएगा। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और भाजपा देश में जातीय जनगणना कराने का हमेशा विरोध करती आई है। लेकिन विपक्ष के दबाव के बीच अब एनडीए के सहयोगी दल टीडीपी और जेडीयू तथा चिराग पासवान की पार्टी द्वारा जातीय जनगणना का खुला समर्थन करने तथा मोहन भागवत की मोदी से नाराजगी के कारण संघ का भी इसके लिए तैयार होने से पीएम व केंद्र सरकार के सामने नया संकट खड़ा हो गया है। जो सरकार को अस्थिर करने की हद तक जा पहुंचा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो इसका तोड़ निकालने के लिए काफी समय से देश में सिर्फ चार जातियों की बात कही जाती है वह कहते हैं कि महिलाएं, युवा, किसान और गरीब यही चार जातियां हैं जिनके उत्थान के लिए उनकी सरकार काम कर रही है। हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर काम करने वाले संघ व भाजपा यह कतई भी नहीं चाहते हैं कि उनके द्वारा लंबे समय के प्रयासों के बाद जो हिंदुत्व का नैरेसन गढ़ा गया है वह जातीय जनगणना के आगे ध्वस्त हो जाए। कटृर हिंदुत्व तथा सनातन के सहारे अपने भविष्य का भवन निर्माण का जो सपना वह संजोय बैठे थे उन्हें लगता है कि जातीय जनगणना से देश का सामाजिक ढांचा तहस—नहस हो जाएगा और देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो जाएगा। लेकिन जिस तरह कास्ट सेंसस को दलितो, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ—साथ आर्थिक रूप से कमजोर स्वर्ण का समर्थन मिल रहा है वह भाजपा और संघ के अस्तित्व के लिए भी एक बड़ा खतरा बन चुका है। यही कारण है कि संघ के अंतरराष्ट्रीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा है कि संघ को जातीय जनगणना से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसका प्रचार राजनीतिक हितों के लिए नहीं होना चाहिए। यह बड़ी अजीब सी बात है कि जब जातियों पर आधारित राजनीति का बोलबाला देश में हो रहा हो तो वहां यह कैसे संभव है। मंडल कमीशन से लेकर राम मंदिर आंदोलन तक जातिगत राजनीति से ऊपर नहीं रहे तो जातीय जनगणना को राजनीति से अलग भला कैसे रखा जा सकता है। कांग्रेस नेता जयशंकर रमेश ने संघ के वक्तव्य पर कई सवाल उठाते हुए कहा है कि संघ जातीय जनगणना हो या न हो इस पर फैसला सुनाने वाला वह कौन होता है? उसे इस पर नसीहत करने का अधिकार किसने दिया है कि इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। मीडिया में यह भी खबरें आ रही है कि भाजपा और संघ ने राहुल गांधी के एजेंडे के आगे घुटने टेक हैं लेकिन इस तरह की बेबुनियाद खबरें जो सोशल मीडिया पर चल रही है उनका कोई मतलब नहीं है। न तो संघ जातीय जनगणना के मुद्दे पर इतनी आसानी से सहमत होने वाला है कि एक व्यक्ति ने एक बयान दे दिया और बस हो गया। न ही भाजपा को यह सहज स्वीकार्य हो सकता है। 2025 में अपनी स्थापना के 100 साल के जश्न पर इस सवाल के साथ मनाने पर भला कैसे तैयार हो सकता है कि उसका 100 साल की उपलब्धियां को शून्य कर दिया जाए। खैर अब कास्ट सेंसस का यह मुद्दा इतना बड़ा हो चुका है कि इसका मुकाम तक पहुंचना भी जरूरी है तथा इस मुद्दे पर राजनीतिक महासंग्राम भी सहज थमने वाला नहीं है। देश की सरकार को इसमें आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसे हर जानकारी रखने का अधिकार है।