मानसूनी आपदा का कहर

0
202


हर साल मानसून आता है और देश के कुछ हिस्सों में बर्बादी के ऐसे निशान अपने पीछे छोड़ जाता है जिनकी भरपाई करने में कुछ लोगों की पूरी उम्र निकल जाती है तो कुछ को कई—कई सालों का समय लग जाता है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का कोई वश नहीं चलता है। फिर भी सतर्कता, जागरूकता और निरंतर बचाव के लिए किए जाने वाले प्रयासों से इस नुकसान को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन मुश्किल यह है कि हम किसी भी आपदा से कोई सबक लेने को तैयार नहीं होते हैं। 2013 में केदारनाथ में आई आपदा जिसमें कितने लोगों की जान गई इस बात का कोई पता आज तक नहीं चल सका है हमने क्या कुछ सबक लिया? शायद कुछ भी नहीं। बस हम केदारपुरी के पुनर्निर्माण में जुट गए और वहां अब पहले से भी बेहतर सुख सुविधाएं जुटाने को ही अपनी कामयाबी माने बैठे है। वहां जो भी निर्माण कार्य और अन्य जो सुख सुविधाएं उपलब्ध हो रही है या हो सकती है उनकी कोशिशें जारी है। हेलीकॉप्टर उड़ान भर रहे हैं, पहाड़ों को तोड़कर नए—नए रास्ते खोजे जा रहे हैं और रोपवे बनाने से लेकर अन्य तमाम तरह के काम किये जा रहे हैं। यह केदार नाथ ही नहीं और भी तमाम धामों तथा पूरे पहाड़ पर हो रहा है। बिना इस बात की परवाह किए हुए कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। बीते साल हमने पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में मानसूनी तबाही की जो भयंकर तस्वीरें देखी थी वैसी तस्वीरें देखने के हम अब आदी होते जा रहे हैं। पहाड़ों पर क्या हो रहा है हमें इससे कोई सरोकार नहीं रहा है। हम बस वह सब करते जा रहे हैं जो भी करना चाहते हैं। धामों में या पहाड़ों पर लाखों—लाख लोग पहुंचे, हर साल नए कीर्तिमान बने। हर साल कमाई में इजाफा हो बस इससे आगे हमें कुछ नहीं सोचना? बीते साल जोशीमठ में क्या हुआ था आज उससे कोई मतलब नहीं है। कल तक हमें टिहरी के तिनगढ़ गांव में क्या हुआ इससे भी कोई सरोकार नहीं होगा और न इससे कोई मतलब होगा कि बूढ़ाकेदार में क्या हुआ? अभी जख्म ताजा है तो मंत्री और अधिकारी भी भाग दौड़ करते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन यह सब तब तक ही हो रहा है जब तक बारिश का दौर जारी है। पहाड़ पर आने वाले लोग लाखों टन कचरा फेंक कर चले जाते हैं कहां कितनी कृत्रिम झीले बन रही हैं और ग्लेशियर पिघलने से क्या हो रहा है क्यों तापमान में इतनी वृद्धि हो रही है फिलहाल इन मुद्दों पर सोचने की भी क्या जरूरत है। हर साल मानसून काल में दर्जनों पुल व पुलिया टूट जाते हैं। सैकड़ो सड़कों का नामोनिशान मिट जाता है तथा पहाड़ों से पत्थरों का गिरना जारी रहता है। जिनकी मरम्मत तक का काम अगले मानसून सीजन तक कर पाना संभव नहीं हो पाता है। गांव के विस्थापन या शहरोंं के विस्थापन की बात तो बहुत बड़ी बात है। कोटद्वार के मालन नदी पर बना जो पुल बीते साल टूटा था शायद अगले साल तो छोड़ ही दीजिए उससे भी अगले साल तक बन सकेगा इसकी कोई संभावना नहीं है। हां हम पहाड़ों पर बहुत जल्द रेल दौड़ने जरूर जा रहे हैं और इस काम में अगर दो—चार गांव भी उजड़ जाए तो क्या फर्क पड़ता हैै। जल प्रबंधन के लिए देश में नदियों को जोड़ने की योजना पर कई सालों से चर्चा हो रही है मगर बिहार डूबे या असम, उत्तर प्रदेश डूबे या राजस्थान यह काम दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सका है। देश को हर मानसून काल में बड़े पैमाने पर जान माल की क्षति होती है मगर इसे कम किये जाने पर कहीं कोई काम न हुआ है न आगे होता दिख रहा है। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे देश में मानसूनी आपदा का कहर जारी है मगर हम इसे दशकों से मूकदर्शक बनकर देखते आ रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here