गठबंधन टूटना ही बेहतर

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अगर कोई राजनीतिक गठबंधन अपने निजी सत्ता स्वार्थो के लिए किया जा रहा है तो वह अधिक समय तक नहीं रह सकता है। 80 के दशक से लेकर अब तक देश में गठबंधनों की राजनीति पर अगर नजर डाली जाए तो उसके निष्कर्ष में यही निकल कर सामने आता है। गठबंधन की राजनीति कम से कम इस देश के लोकतंत्र के लिए कभी मुफीद नहीं रही है। इस गठबंधन की राजनीति के कारण हमेशा ही राजनीति का चीर हरण हुआ और सत्ता का दुरुपयोग। इसके साथ ही राजनीतिक अस्थिरता के कारण देश व समाज का विकास बाधित हुआ है। लोकतंत्र सिर्फ दलीय या बहुदलीय व्यवस्था में ठीक पल्लवित हो सकता है इस बात का एहसास देश की जनता कर ही चुकी है साथ ही सभी राजनीति दल भी अच्छे से जानते हैं। एक समय में कांग्रेस देश की सबसे सशक्त और बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का लाभ उठाते हुए सत्ता पर अपना कब्जा बनाये रहती थी अब उसकी जगह भाजपा ने ले ली है। 70 के दशक में जब स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस का अभिमान चरम सीमाओं को लांघकर देश पर सत्ता के लिए आपातकाल थोपने तक पहुंच गया तो समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर कांग्रेस को करारी मात देते हुए उसे सत्ता से बाहर धकेल दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली यह सरकार भी सत्ता पर टिकी नहीं रह सकी थी। वर्तमान में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए विपक्षी दलों द्वारा जिस इंडिया गठबंधन का सूत्रपात किया गया उसे लेकर भी आम आदमी के सामने वही सवाल बना हुआ है। अभी हालांकि चुनाव कार्यक्रम की घोषणा होने में भी थोड़ा सा समय शेष है लेकिन इससे पहले ही सीटों के बंटवारे को लेकर इंडिया गठबंधन की नींव दरकती दिख रही है। यह गठबंधन चुनाव तक भी चल सकेगा अब इसकी संभावनाएं भी बहुत कम शेष बची है। गठबंधन के प्रमुख दलों द्वारा कांग्रेस को अभी भी देश का सबसे बड़ा दूसरा दल होने के बावजूद भी वह तवज्जो देने को तैयार नहीं है जिसकी कांग्रेस हकदार है। बात चाहे तृणमूल कांग्रेस की हो या फिर सपा अथवा आप जैसी नवोदित पार्टी की। सब के सब अपने आप को सवा शेर समझ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस व सपा और आप जैसे दल कांग्रेस को उन राज्यों जहां उनका दबदबा है दो या तीन सीटों से ज्यादा देने को तैयार नहीं है। उन्हें सपा की तरह डर सता रहा है कि कहीं उनका वजूद खतरे में न पड़ जाए। सभी दल अब सिर्फ अपने नफा नुकसान के गुणा भाग में ही लगे हैं। किसी का भी मकसद नहीं है कि भाजपा को सत्ता में आने से कैसे रोका जाए? इन तमाम दलों के नेता इस गठबंधन के साथ मजबूरी में खड़े दिखाई दे रहे हैं क्योंकि उनको ईडी और सीबीआई का डर सता रहा है। या यह कहे कि वह स्वयं को सत्ता के उत्पीड़न से पीड़ित पा रहे हैं। भले ही 2024 के चुनाव में उनकी गति और स्थिति कुछ भी रहे उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व भी कबूल नहीं है। यही कारण है कि बनने से पहले ही अब यह गठबंधन बिखरने के कगार पर आकर खड़ा हो गया है। ममता बनर्जी एकला चलो का नारा बुलंद कर रही है तो पंजाब के सीएम मान भी राज्य की सभी 13 सीटों पर चुनाव लड़ने व जीतने का खम ठोक रहे हैं। भले ही जब चुनाव नतीजे आए तो उन्हें दो—तीन सीट भी न मिल सके। यही हाल सपा प्रमुख अखिलेश यादव का भी है। वह कांग्रेस को अब किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल से ज्यादा नहीं समझ रहे हैं अगर इस गठबंधन का उद्देश्य यही था तो फिर इसका टूटना ही ज्यादा अच्छा है। खुद को ही हराने से ज्यादा बेहतर अकेले रहकर चुनाव लड़ना है। हार या जीत जो भी होगी कम से कम खुद की तो होगी। बसपा सुप्रीमो मायावती जिन्होंने पहले ही गठबंधन का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था इस गठबंधन को तोड़कर भागने वालों से तो बेहतर ही है। रही बात भाजपा की तो यह सभी दल गठबंधन इंडिया से अगर भाजपा को रोकने में कुछ हद तक सफल हो सकते हैं, की संभावना है इंडिया गठबंधन के बिखरने के साथ ही समाप्त हो जाएगी। वर्तमान में कोई दल उस स्थिति में नहीं है कि अकेले चुनाव लड़कर भाजपा का मुकाबला कर सकें अगर इंडिया गठबंधन बिखरता है तो भाजपा 2024 के चुनाव में बिना किसी परिश्रम के ही विजय पताका फहराने में सक्षम है।

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