सिलक्यारा टनल में फंसे 41 श्रमिकों की जान बचाने के लिए भले ही युद्ध स्तर पर रेस्क्यू अभियान चलाया जा रहा हो लेकिन एक सप्ताह का समय बीत जाने के बाद भी बचाव और राहत कार्य में जुटी टीमों को अभी तक आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है। इस अभियान की असफलता राज्य और केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर तो सवाल खड़े करती ही है साथ ही उनकी कथनी और करनी के फर्क को भी दर्शाती है। इंडिया इज ऑन मून की उपलब्धि पर गर्वान्तित होने और अब सूर्य फतेह की तैयारी का दावा करने वाले लोगों को अब इस मुद्दे पर चिंतन करने की जरूरत है कि जब वह एक सुरंग में 50—60 मीटर की दूरी पर फंसे 41 लोगों की जान एक सप्ताह में भी अपनी पूरी ताकत झोंक कर भी नहीं बचा पाए हैं तो फिर इतनी बड़ी बातें और दावे करने की क्या जरूरत है? सिलक्यारा में बचाव और राहत कार्य जो अब तक किए गए हैं उनके नतीजे अभी शुन्य ही कहे जा सकते हैं। इन तमाम प्रयासों के बारे में यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि यहां एक के बाद एक प्रयोग किया जा रहे हैं। जब किसी की जान बचाने का सवाल हो तो वहां किसी प्रयोग की बजाय सबसे प्रभावी उपायों पर अमल किया जाना जरूरी होता है। ऐसे समय में बहुत सारे विकल्पों पर सोचने और काम करने का समय नहीं होता है। उसके लिए प्लान ए बी सी डी का फार्मूला अप्लाई नहीं किया जाना चाहिए। इस अभियान में प्लान ए और प्लान बी पर काम करते—करते पूरा एक सप्ताह का समय गुजर चुका है। गनीमत यह है कि अभी तक सुरंग में फंसी सभी 41 जिंदगियों के सुरक्षित होने का समाचार है और एकमात्र 4 इंच के डायमीटर का वह पाइप उनकी जीवन रक्षा कर पा रहा है जिसके माध्यम से उन तक ऑक्सीजन पानी और रसद पहुंच रहा है। लेकिन सवाल सबसे बड़ा यही है कि इस उपाय से सुरंग में फंसे लोग कितने समय तक सुरक्षित रह पाएंगे और उन्हें बाहर निकलने में अभी और कितना समय लगेगा किसी भी बचाव और राहत कार्य में रिस्पांस टाइम का सबसे बड़ा महत्व होता है। इस सुरंग में फंसे लोगों द्वारा एक सप्ताह में जो हिम्मत और हौसला दिखाया गया है उनका वह जज्बा काबिले तारीफ है तथा जब तक उनका हौसला बरकरार है तब तक उनके सुरक्षित बाहर आने की उम्मीद भी बनी रहेगी लेकिन हर एक स्थिति और परिस्थिति की एक समय सीमा भी होती है। किसी भी सूरत में अब इन्हें जल्द से जल्द बाहर निकाले जाने की जरूरत है भले ही इसके लिए एक साथ प्लान सी और डी सहित सभी विकल्पों पर काम करना पड़े। जब दिवाली के दिन यह हादसा हुआ तो सूबे के मुख्य सेवक धामी दुर्घटना स्थल पर स्वयं गये थे उनकी उपस्थिति से निश्चित ही इस बचाव व राहत कार्य को बल मिला था बीते कल मुख्यमंत्री धामी राजस्थान में चुनावी रैलियां को संबोधित करते दिखे एक बार सिलक्यारा जाने के बाद वह और उनकी टीम भले ही यहां चलाये जा रहे अभियान पर नजर बनाए हो लेकिन जिनके परिजन इस टनल में फंसे हुए हैं वह लोग आज यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या किसी की जान बचाने से ज्यादा जरूरी है चुनाव प्रचार? इस बचाव राहत कार्य में हो रही देरी और ऐसी कुछ बातें जो लोगों को चुभ रही है, से सरकार की छवि खराब हो रही है और एक गलत संदेश जनता में जा रहा है। सच यह है की सुरंग में फंसे लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम अब सरकार के लिए भी उसकी प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है यह काम अत्यंत कठिन और चुनौती पूर्ण है। ऐसा होना चाहिए था वैसा होना चाहिए था जैसी बातें कर लेना बहुत आसान है धरातल में काम करना उतना ही मुश्किल है। यह असफलता कब तक सफलता में बदलती है अब इस पर ही पूरे देश और प्रदेश की नजरें लगी हुई है।