नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री से कराए जाने के मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने—सामने हैं। टकराव और तकरार अब उस सीमा को लांघता जा रहा है जहां भाषा या संवाद और संवैधानिक शिष्टाचार की मर्यादाएं समाप्त हो जाती है वहीं दूसरी ओर यह मुद्दा अदालत की देहरी तक जा पहुंचा है खास बात यह है कि अब इस विवाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हो गए हैं। विपक्षी दलों के नेता तो इस मुद्दे पर तरह—तरह के तर्क और बयान दे ही रहे हैं। सवाल यह है कि क्या वास्तव में यह इतनी बड़ी कोई राष्ट्रीय समस्या या राजनीतिक मुद्दा है जिस पर इतना हंगामा मचा हुआ है। गृहमंत्री कह रहे हैं कि देश की जनता कांग्रेस और विपक्ष के इस रवैया को देख रही है और मोदी 2024 में फिर 300 प्लस सीटें जीतकर तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे? उनका यह बयान ही इस बात के पीछे छिपे विवाद को स्पष्ट करता है कि यह महज चुनावी मुद्दा है। भाजपा संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से न कराकर प्रधानमंत्री से इसलिए करवा रही हैं कि उसे इसका चुनावी लाभ मिल सके और विपक्ष भी अगर इसका विरोध कर रहा है कि वह इसका चुनावी लाभ ले सके। इस मुद्दे से एक और बात साफ होती है कि राजनीति से अब सहिष्णुता की समाप्ति होती जा रही है। अपनी सत्ता के 10 सालों में भाजपा के नेताओं का दंभ अब इतना बढ़ चुका है कि उन्होंने यह मान लिया है कि वह जो भी कर रहे हैं और जो कुछ कहते हैं सिर्फ उन्हीं की बात सही है लोग उनकी बात ही सुने और उनकी बात ही माने। यही नहीं वह विपक्ष के किसी सुझाव तक पर रत्ती भर विचार—विमर्श पर गौर करने को तैयार नहीं है। अभी बीते दिनों इसी ने संसद भवन में अशोक चक्र की 3 शेरों वाली प्रतिमा के निर्माण के दौरान विपक्ष ने इन शेरों की भाव भंगिमाओं पर सवाल उठाते हुए कहा था कि वह उसके वास्तविक स्वरूप से मेल नहीं खाती है। लेकिन विपक्ष के इस सुझाव को सरकार द्वारा कतई भी तवज्जो नहीं दी गई। जबकि यह उस कृतिकार की चूक भी हो सकती है इस गौर करने की बजाय सत्तापक्ष ने तर्क दिया अशोक चक्र वाले शेर शांत स्वभाव वाले हैं और यह शेर गुस्से वाले हैं। अजीब बात यह है अगर अपने लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहने के दर्द की अभिव्यक्ति अगर भाजपा इस तरह से करना चाहती है वैसे भी सत्ता के मद के बारे में कहा जाता है कि ट्टकनक कनक ते सौ गुने मादकता अधिकाय या खाये बौराये जग व पाये बौराय’। भाजपा के नेताओं का यह गुस्सा या सत्ता का मद अगर है तो इसका नुकसान उन्हें ही होगा। अगर विपक्ष की मंशा थी कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से कराया जाना चाहिए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके निकट सहयोगियों को इस पर विचार करना चाहिए था अगर प्रधानमंत्री के संज्ञान में यह बात पूर्व समय में आ गई थी तो उन्हें खुद विपक्ष की भावनाओं का सम्मान करते हुए यह सुझाव मान लेना चाहिए था लेकिन अब वह खुद भी उस अहंकार का शिकार हो चुके हैं तो इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। उनकी फौज के सिपहसालार और बयान वीर इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर जिस तरह का प्रहार कर रहे हैं भले ही वह चापलूसी की पॉलिटिक्स हो लेकिन वह पार्टी हित में कतई नहीं है। 20 से अधिक राजनीतिक दल इस कार्यक्रम के बहिष्कार की घोषणा कर चुके हैं उनकी गैर—मौजूदगी से भले ही कार्यक्रम पर कोई फर्क न पड़े लेकिन देश पर फर्क जरूर पड़ेगा।