बीते रोज प्रयागराज की अदालत द्वारा पूर्व सांसद अतीक अहमद व उसके तीन सहयोगियों को उमेश पाल अपहरण कांड में उम्र कैद की सजा सुनाई गई। इस फैसले का जिस तरह से चौतरफा स्वागत होता देखा गया उसकी वजह भी बड़ी अजीबोगरीब है, 40 साल का आपराधिक इतिहास और आतंक का पर्याय बन चुके माफिया डॉन अतीक को पहली बार किसी अदालत द्वारा किसी केस में सजा सुनाया जाना जबकि उसके ऊपर 100 से अधिक मुकदमे विभिन्न थानों में दर्ज है। बड़ी स्पष्ट सी बात है कि जो अपराधी शासन प्रशासन और न्यायपालिका को खुली चुनौती देता रहा हो और उसके खौफ के आगे कोई मुंह खोलने को तैयार होने का साहस न कर सके तो ऐसे व्यक्ति को सजा होने पर सब तालियां ही बजाएंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अतीक अहमद को इस मुकाम तक किसने पहुंचाया? उन राजनीतिक दलों की इसमें सबसे अहम भूमिका रही जिन्होंने उसे और उसके परिजनों को राजनीतिक पोषण और संरक्षण दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो अतीक ऐसा नहीं बन सकता था। ऐसा नहीं है कि देश की राजनीति के अपराधीकरण के लिए सिर्फ कुछ ही दल जिम्मेवार है। इस काम में सभी दल समान भागीदार हैं। हर किसी दल द्वारा ऐसे बाहुबलियों और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की दरकार रही है, जिसके कारण आज हालात यह हो चुके हैं कि संसद से लेकर देश भर की राज्य विधानसभाओं में आधे से अधिक आपराधिक छवि के लोग विराजमान हैं। देश की तमाम अदालतों में पूर्व व वर्तमान सांसदों और विधायकों के खिलाफ 3000 से अधिक आपराधिक मामले चल रहे हैं। खास बात यह है कि इनमें से अधिकाश ऐसे हैं जिन पर हत्या, अपहरण और डकैती जैसे गंभीर आपराधिक मामले हैं। सवाल यह है कि अतीक अहमद जिस पर 100 से अधिक गंभीर आपराधिक मामले हो वह व्यक्ति किसी समाज के लिए भला आदर्श कैसे हो सकता है या वह समाज को क्या दिशा दे सकता है और राष्ट्र निर्माण में उसकी क्या भूमिका हो सकती है? आज जब देशवासी आजादी के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में अमृत काल महोत्सव मना रहा है, देश में राजनीति के अपराधीकरण को क्यों नहीं रोका जा सका। अगर एक चपरासी की नौकरी पाने के लिए व्यक्ति से चरित्र प्रमाण पत्र मांगा जाता है तो इन जनप्रतिनिधियों के लिए चरित्र के कोई ऐसे मानक क्यों नहीं तैयार किए जा सके जो इन्हें संसद व विधान भवन पहुंचने से रोक पाते। कल जिस 17 साल पुराने मामले में अतीक को सजा सुनाई गई वह वास्तव में इंसाफ कहा ही नहीं जा सकता है। 17 साल पहले बसपा विधायक राजू पाल की हत्या के मामले में चश्मदीद गवाह उमेश पाल के अपहरण केस में अतीक को सजा सुनाई गई है। निचली अदालत से भले ही 17 साल बाद सजा दी गई हो लेकिन अभी ऊपरी अदालतों में यह केस कितने साल चलेगा कुछ पता नहीं है। अभी 4 फरवरी को उमेश पाल की हत्या सरेआम दिनदहाड़े अतीक अहमद के गुर्गों ने कर दी थी जिसमें उसके बेटे व पत्नी भी आरोपी है। सवाल यह है कि क्या देश की अदालतों में अतीक के जीवन काल में फैसले हो सकेंगे। इसका साफ जवाब है कि बिल्कुल भी नहीं। फिर यह क्या न्याय है? जिसके लिए सब ताली बजा रहे हैं। देर से मिला न्याय, न्याय नहीं अन्याय होता है यह भले ही कानून की किताबों में लिखा हों लेकिन यह व्यवहारिक सच नहीं है। कई लोग इस लोकतंत्र को लटठ् तंत्र भी कहते हैं भले ही यह गलत सही लेकिन संसद व विधानसभाओं में जब तक आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की मौजूदगी रहेगी सत्ता भी जिसकी लाठी उसकी भ्ौंस की कहावत को चरितार्थ करती रहेगी।