समय पूर्व सत्रावसान की परंपरा

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उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी भराड़ीसैंण में आयोजित बजट सत्र का बीते कल देर रात समापन हो गया। सरकार जो गैरसैण की उपेक्षा के आरोप झेलती रही है। 3 साल के अंतराल के बाद जैसे—तैसे यहां बजट सत्र का आयोजन को तैयार हुई तथा सत्र की अवधि महज 6 दिन की रखी गई लेकिन सत्तापक्ष ने इससे भी 2 दिन पूर्व सत्र को समेट दिया। 18 मार्च तक चलने वाले इस सत्र का समापन समय पूर्व किए जाने की भनक लगने पर विपक्ष ने ना सिर्फ सत्र की समय अवधि बढ़ाने की मांग की बल्कि सत्र समापन की घोषणा के बाद इसका विरोध भी किया। यह कोई पहला अवसर नहीं है गैरसैण में अब तक जितने भी सत्रों का आयोजन किया गया है कोई सदन पूर्ण अवधि तक नहीं चल सका है। यही नहीं धामी सरकार का इससे पूर्व देहरादून में आयोजित किया गया पहला विधानसभा सत्र का भी समय पूर्व ही समापन कर दिया गया था। विपक्ष का आरोप है कि सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष को अपनी बात और सवाल रखने का मौका ही नहीं दिया जाता है। इसमें कोई शक भी नहीं है कि उत्तराखंड में सरकार द्वारा विधानसभा सत्र सिर्फ संवैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने और जरूरी विधाई कार्यों के लिए ही आयोजित होते हैं। सत्र के पहले ही दिन से सरकार की यह कोशिशें शुरू हो जाती है कि जल्दी से जल्दी सरकार अपने विधाई कार्यों को निपटाए। जैसे ही यह विधाई कार्य निपटते हैं सत्र के समापन की घोषणा कर दी जाती है। सत्र के लिए विपक्ष द्वारा जो प्रश्न लगाए जाते हैं ना तो उन सवालों का जवाब उन्हें मिल पाता है और ना अपने क्षेत्र की समस्याओं को उठाने और उन पर किसी सार्थक बहस सदन में हो पाए इसका मौका ही नहीं मिल पाता है। राज्यपाल के अभिभाषण और बजट प्रस्तावों पर भी कोई सार्थक चर्चा न हो पाती है। तब क्या विधान भवन सरकार को सिर्फ अपनी बात कहने और अपने तरीके से अपने कामकाज निपटाने के लिए बने हैं। सदन जिन्हें लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है उनमें या तो सिर्फ हंगामे और तू तू मैं मैं होती है या फिर सरकारी प्रस्तावों पर मोहर लगाने की औपचारिकताएं पूरी की जाती है किसी भी स्थिति में ऐसी परंपरा को स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है। सत्ता पक्ष द्वारा सदन में विपक्ष की बात ना सुने जाने या विपक्ष के मुद्दों और सवालों को हवा में उड़ा दिए जाने के कारण ही विपक्ष हंगामे पर मजबूर होता है और वैसी ही स्थितियां पैदा होती है जैसी इस बार गैरसैण के बजट सत्र के दौरान देखने को मिली। जब जसपुर विधायक आदेश चौहान के विशेषाधिकार मामले को लेकर कांग्रेस विधायक हंगामें पर मजबूर हो गये और विधानसभा अध्यक्ष को विपक्षी विधायकों को निलंबित करना पड़ा । विधानसभा सत्र का आशय सिर्फ यह नहीं है कि सरकार सिर्फ अपनी बात कहे और अपना काम करे और भाग ले। बिना विपक्ष के न लोकतंत्र की कोई सार्थकता है और न विधानसभा और संसद सत्रों की।इस लिए सत्ता पक्ष को विपक्ष की भावनाओं का भी सम्मान करना चाहिए और उन्हें भी अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए । जवाबदेही से बचने के लिए समय पूर्व सत्रावसान की यह परम्परा कदाचित भी ठीक नहीं है।

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