भर्ती घोटालों पर भले ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खुद ही अपनी पीठ थपथपाते हुए यह कह रहे हो कि अब तक सिर्फ बातें ही होती थी लेकिन हमने इस पर कड़ी कार्रवाई की है और उनकी सरकार युवाओं के भविष्य को लेकर गंभीर है। लेकिन सवाल यह है कि क्या धामी सरकार के गंभीर प्रयास भर्तियों में धांधलियों को रोक पाए हैं? अभी हाल ही में लेखपाल और पटवारी भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा का भी पेपर लीक होने का जो मामला सामने आया है वह ऐसे समय में आया है जब मुख्यमंत्री खुद यह दावा कर रहे थे कि अब भर्तियों में धांधली करना तो दूर कोई धांधली करने की बात सोच भी नहीं सकता है। उनकी यह बात पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की उस बात से मेल खाती है जब लोकायुक्त के गठन के मामले पर उन्होंने कहा था कि जब प्रदेश में भ्रष्टाचार ही नहीं रहा तो फिर लोकायुक्त की क्या जरूरत है? भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति पर चलने वाली भाजपा ने अपने चुनावी दृष्टि पत्र में जनता से यह वायदा किया था कि अगर वह सत्ता में आएंगे तो 100 दिन के अंदर सशक्त लोकायुक्त का गठन किया जाएगा। लेकिन 2017 से लेकर भाजपा की सरकार लोकायुक्त का गठन नहीं कर सकी है। राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक लगातार भर्तियों में व्यापक धांधलियंा होती रही है और इनका अभी भी सिलसिला बदस्तूर जारी है। बस समय के साथ राजनीतिक दल और नेताओं की प्राथमिकताएं बदलती रहती है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की प्राथमिकताओं में भर्ती में धांधली के मुद्दे तो है ही इसके साथ ही राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने जैसे कई अन्य मुद्दे हैं। 21वें दशक में उत्तराखंड को देश का अग्रिम राज्य बनाने की बात भी वह पूरे दावे के साथ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का वह कथन उन्हें कंठस्थ याद है कि यह दशक उत्तराखंड के विकास का दशक होगा। आज उत्तराखंड के नेताओं की डायरी से भ्रष्टाचार शब्द ही ओझल हो गया है इसकी जगह अब धांधली शब्द ले चुका है क्योंकि भर्तियों में भ्रष्टाचार नहीं धांधली हो रही है। आजकल यह धांधली इतना बड़ा मुद्दा बन चुकी है कि मीडिया की खबरें भर्ती धांधली की खबरों के बिना अधूरी—अधूरी सी लगती है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कम से कम इस कार्यकाल के लिए यह भर्ती धांधली अकेला ही मुद्दा काफी होगा। विधानसभा बैकडोर भर्तियों में 2016 से पूर्व की नियुक्तियों का क्या किया जाए अब इस बारे में अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी द्वारा हाईकोर्ट के महाधिवक्ता से विधिक राय मांगी गई है कि क्या किया जा सकता है क्योंकि 2013 से 16 के बीच भर्ती हुए 159 कर्मचारियों को सरकार द्वारा नियमित किया जा चुका है 2016 के बाद नियुक्त किए गए 228 कर्मचारियों को तो विधानसभा अध्यक्ष ने एक झटके में बाहर कर दिया क्योंकि वह संविदा पर थे? लेकिन अवैध तो वह नियुक्तियां भी हैं, जो नियमित किए गए हैं इनको नियमित करना भी सरकार की गलती थी लेकिन सरकार को भला कोई क्या कर सकता है। भर्तियों में धांधली रोकने को सरकार अब सख्त कानून भी लाने जा रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार की तमाम कार्यवाही भर्तियों में धांधलियों को रोक पाएगी? अगर नहीं तो फिर इस कवायद का फायदा क्या है?