दून के प्रख्यात डीएवी कॉलेज प्रबंधन की ओर से आए इस आदेश ने राजनीतिक संगठनों और दलों तथा शिक्षकों में सनसनी पैदा कर दी है की वह 26 नवंबर तक उन दलों और संगठनों से इस्तीफा देकर शपथ पत्र पेश करें कि वह किसी राजनीतिक दल या संगठन से नहीं जुड़े हैं अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी। अब हर फैसले की तरह इस फैसले को लेकर भी इसका समर्थन करने वालों और विरोध करने वालों के बीच तू—तू मैं—मैं होना भी लाजमी है। लेकिन इस मुद्दे पर कुछ लिखने से पहले हम आपको कवि हरिओम पंवार की कविता की उन पंक्तियों से अवगत कराना चाहते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है ट्टगाएंगे हम आरतियां दरबारों की, हमको भी तो लोकसभा तक जाना है’। वर्तमान दौर का सच यही है कि हर व्यक्ति वह चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो या जुड़ा हो उसे अपनी सामाजिक भागीदारी से कोई सरोकार नहीं है कि समाज के उत्थान और उन्नयन में उनकी क्या जिम्मेदारी और हिस्सेदारी है लेकिन उस सत्ता में उसे अपनी भागीदारी जरूर चाहिए। अगर कोई व्यक्ति शिक्षक है तो उसका कर्म और धर्म शिक्षण कार्य है उसकी सोच अपने छात्रों (शिष्यों) को ऐसी शिक्षा दीक्षा प्रदान करना होना चाहिए जो उन्हें उत्कृष्ट और योग्य व्यक्ति बनाने में मददगार साबित हो सके। लेकिन वर्तमान दौर में शिक्षकों को छात्रों की शिक्षा दीक्षा और चरित्र निर्माण से तो कोई सरोकार रहा नहीं है, वह कार्य शिक्षक का कर रहे हैं सरकार से पगार भी शिक्षण कार्य की ले रहे हैं लेकिन अपना कैरियर और भविष्य राजनीति में तलाशते रहते हैं। खास बात यह है कि इसमें वह आसानी से सफल भी हो जाते हैं। उनकी सफलता अन्य शिक्षकों के लिए प्रेरणा के द्वार खोल देती है। अगर कोई वैज्ञानिक है तो वह विज्ञान के शोध कार्य ही बेहतर कर सकता है उसके हाथ में अगर आप सीजर थमा कर किसी मरीज के ट्यूमर का ऑपरेशन कर आएंगे तो फिर मरीज की मौत तय है। इस देश के कर्मचारियों के साथ यह विडंबना जुड़ी हुई है कि वह जिस क्षेत्र में भी कार्यरत होते हैं उससे कभी संतुष्ट नहीं होते और अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ अपने क्षेत्र में काम नहीं करते और जो उनका क्षेत्र नहीं है उसमें हाथ पैर मारते रहते हैं और उनकी यह कोशिश कई बार न इधर का छोड़ती है और न उधर का। राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र कॉलेज से शुरू करते हैं यह बात तो किसी के भी समझ आ सकती है लेकिन शिक्षक अपनी राजनीतिक पाली कालेज से शुरू करें यह समझ से परे है। वैसे भी वर्तमान दौर में अगर महाविघालयों की बात करें तो वह शिक्षण संस्थान कम और राजनीति का अखाड़ा ज्यादा बन चुके हैं जिनका इस्तेमाल सभी राजनीतिक दल अपने अपने फायदे के लिए कर रहे हैं। डीएवी कॉलेज प्रबंधन का यह फैसला व्यवस्था को बदल सकता है ऐसा संभव नहीं लगता है।