आजादी के अमृत काल में इस देश के नेता और राजनीतिक दल अगर राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकारों के मुद्दों से इतर अगर जातीय व सांप्रदायिक तथा धार्मिक मुद्दों की लड़ाई लड़ रहे हैं या उन्हें तरजीह देखकर जनता का वोट बटोरने की राजनीति को राजनीति मान रहे हैं तो इससे अधिक चिंताजनक और कोई बात नहीं हो सकती है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी किया गया नया फरमान जिसमें अब फोन रिसीवर के हेलो बोलने पर पाबंदी लगाते हुए हेलो की जगह वंदे मातरम कहने के निर्देश दिए गए इसका ताजा उदाहरण है। वंदे मातरम पर अब इस फरमान के बाद नया विवाद खड़ा हो गया है। तमाम मुस्लिम नेताओं द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है और इसके साथ ही वंदे मातरम न कहने की बात कही जा रही है। यह विडंबना ही है कि मातृभूमि को पूजनीय मानने और उसकी वंदना करने में किसी को भी क्यों आपत्ति है? एक तरफ यही मुस्लिम नेता स्वयं को सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त तो बताते ही है साथ ही देश के लिए मुसलमानों द्वारा की गई सर्वाेच्च कुर्बानियों का जिक्र करने में भी पीछे नहीं हटते हैं। अभी बीते दिनों स्कूलों में वंदे मातरम (राष्ट्रीय गीत) के गाने को लेकर भी इसी तरह का विवाद खड़ा किया गया था। जहां एक तरफ सवाल बंदेमातरम के विरोध किए जाने का है तो वहीं दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे मुद्दे उठाए जाते हैं जिन्हें लेकर कोई विवाद खड़ा हो? क्या इस तरह के विवादों को खड़ा करने का काम ही राजनीति हो गया। यहां यह भी काबिले गौर है कि बात चाहे कुछ भी हो व कहीं से शुरू की गई हो नेताओं द्वारा हर एक बात को हिंदू मुस्लिम पर लाकर खड़ा कर दिया जाता है। वंदे मातरम का कोई सरोकार हिंदू और मुस्लिम से नहीं है। यह कोई मूर्ति पूजा का मुद्दा नहीं है जिसकी इस्लाम धर्म में इजाजत न दिए जाने की बात कही जाती है। देश या मातृभूमि कोई मूर्ति नहीं है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यह देश और इसकी व्यवस्था संविधान के अनुसार चलती है। संविधान में जो आम नागरिकों को अधिकार मिले हैं उन्हें कोई किसी से नहीं छीन सकता है। भाषा—बोली—वेशभूषा का सभी को समान अधिकार है कोई कुछ भी पहने पगड़ी बांधे या टोपी पहने अंग्रेजी बोले या हिंदी बोले अथवा पारसी इससे क्या फर्क पड़ता है। दरअसल जाति, धर्म और भाषा व अन्य धार्मिक मुद्दों को राजनीति का टूल बनाने की जो मानसिकता राजनीति की बन चुकी है और आम जनता के मन में इसे लेकर विभाजनकारी मनोवृति पैदा कर दी गई है यह उसी का नतीजा है। समाज में कुरीतियों और बुराइयों को समाप्त करने की जिम्मेवारी लेने की बजाय सांप्रदायिक विभाजन राजनीति न समाज हित में है न राष्ट्रीय हित में। सवाल यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी राष्ट्र और समाज के मूल मुद्दे और समस्याओं पर समाधान के चिंतन की बजाय आज भी देश के नेता और राजनीति की सुई हिंदू—मुस्लिम मंदिर—मस्जिद पर ही अटकी हुई है।