मणिपुर में बीते चार महीनों में क्या हुआ और क्या हो रहा है यह कितना दुखद और निंदनीय है? इसकी पीड़ा का एहसास सिर्फ मणिपुर के लोगों को ही हो सकता है जिन्होंने इस हिंसा में अपने घरों को जलते हुए देखा है और अपनी मां—बहनों के ऊपर क्रूर अत्याचार होते हुए देखा है और अत्याचारियो का विरोध करने पर अपनों का खून बहते देखा है। लेकिन इससे भी ज्यादा शर्मनाक और निंदनीय वह है जो बीते कुछ दिनों से देश की संसद में हो रहा है जिसे पूरा देश देख रहा है। हमारे माननीय सांसद और मंत्रियों द्वारा अपने आप को सही ठहराने और दूसरों को गलत साबित करने के लिए जमकर अपनी भडास निकाली जा रही है। सत्ता पक्ष खूब चौके—छक्कों की बरसात कर रहा है और विपक्ष फील्डिंग में खूब खून—पसीना बहा रहा है अथक प्रयासों के बाद विपक्ष ने प्रधानमंत्री मोदी को सदन में आने और मणिपुर पर कुछ कहने पर विवश जरूर कर दिया गया लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर हुई यह चर्चा संसद में चले क्रिकेट मैच से कम रोमांचक नहीं रही। जिसमें खिलाड़ियों से लेकर दोनों टीमों के कप्तानों और कमेटररो ने इसका खूब लुत्फ उठाया। संसद में मणिपुर जैसे अति संवेदनशील मुद्दे पर हुई यह चर्चा अब इतिहास बनकर पन्नों में दर्ज हो चुकी है जो हमेशा हमारे माननीयों के असंवेदनशील आचरण की गवाही देती रहेगी। यह अत्यंत ही चिंता और निराशाजनक है कि आजादी के 75 साल बाद जब देश में अमृत काल का ढोल पीटा जा रहा है तो देश की राजनीति असंवेदनशीलता की प्रकाष्ठाओ को लांघ चुकी है और देश के नेताओं द्वारा अपनी समूची ताकत का इस्तेमाल सिर्फ सत्ता हासिल करने या फिर सत्ता में बने रहने के लिए किया जा रहा है। आम आदमी के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा और जन सरोकारों तथा समस्याओं से उनका सौ—सौ कोस तक कोई वास्ता नहीं रह गया है। अगर ऐसा नहीं होता तो मणिपुर में चार महीने से जो कुछ हो रहा है वह कदाचित भी नहीं हो सकता था। सत्ता ने अपने अधिकारों का प्रयोग कर सख्ती से इसे रोकने का प्रयास किया होता। देश के गृहमंत्री सदन में सभी लोगों से अपील कर रहे हैं कि वह हाथ जोड़कर मणिपुर के लोगों से शांति बहाली की अपील करें। संसद में चर्चा का विषय यह नहीं रहा कि मणिपुर की घटनाओं को कैसे रोका जाए बल्कि चर्चा इस बात पर हो रही है कि कौन अहंकार और तुष्टिकरण की राजनीति कर रहा है और कौन नफरत की राजनीति कर रहा है और कौन मोहब्बत की दुकान खोले बैठा है और उसका क्या उद्देश्य है। विपक्ष ने कल इस बात को लेकर सदन से बर्हिगमन किया क्योंकि प्रधानमंत्री ने अपने 2 घंटे के भाषण में मणिपुर के मुद्दे पर उठाए गए किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया गया और अधिकतर समय वह या तो अपनी सरकार के 9 सालों की उपलब्धियों पर बोलते रहे या फिर विपक्ष पर सवाल खड़े करते रहे। या फिर तीसरी बार सत्ता में आने का दावा करते हुए विपक्ष को तीसरी बार पूरी तैयारी के साथ अविश्वास प्रस्ताव लाने की चुनौती देते रहे। उनका कहना था कि मजा तब आया जब विपक्ष ने फील्डिंग लगाई और चौके—छक्के हमारी ओर से लगाए गए। उनके इस बयान से मणिपुर हिंसा और महिलाओं के साथ हुई शर्मनाक घटनाओं पर हुई यह चर्चा कितनी संजीदा थी, इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। जिस लोकतंत्र और संविधान की व्यवस्थाओं के तहत देश का राज—काज चल रहा है क्या वह इतनी जर्जर हो चुकी है या फिर राजनीति के आचरण का क्षय उसे हद तक हो चुका है जहां संवेदनाओं के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचता है? यह सवाल आज हर भारतीय के मन को मथ रहा है।