वोट वाली सोशल इंजीनियरिंग

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आगामी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए सभी दलों और नेताओं ने सोशल इंजीनियरिंग का काम शुरू कर दिया है। भले ही यह हैरान करने वाली बात सही कि आजादी के 75 साल बाद भी देश की राजनीति आज भी जाति और धर्म के इर्द—गिर्द ही घूम रही है। हमारे किसी भी नेता को भले ही अपने राज्य के बारे में कोई बेसिक जानकारी न हो लेकिन उसे यह जरूर पता होता है कि राज्य में किस जाति के और कितने मतदाता है तथा किस विधानसभा क्षेत्र में कौन सी जातियां धर्म के लोगों का वोट चुनाव में निर्णायक साबित होता है। बीते कल जब संसद में पीएम नये मंत्रियों का परिचय करा रहे थे व विपक्ष हंगामा कर रहा था तो उन्होंने कहा कि विपक्षी नेताओं को यह अच्छा लग रहा है, क्योंकि वह यह नहीं देख सकते कि कोई दलित, पिछड़ा, आदिवासी या महिला मंत्री बने। पीएम ने जिस सहज अंदाज में अपनी कैबिनेट के विस्तार में की गई सोशल इंजीनियरिंग के जरिए कांग्रेस व विपक्ष को दलित पिछड़ों व महिलाओं का विरोधी बता दिया गया। आपको याद होगा बसपा सुप्रीमो मायावती जो कभी चुनावी सभाओं में ट्टतिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार, जैसे नारे लगाती थी। वह उत्तर प्रदेश में इसी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए ब्राह्मणों के वोटों पर कैसे फिर सत्ता शीर्ष तक पहुंच गई थी। भले ही 2017 के चुनाव में यूपी के ब्राह्मण मतदाताओं ने उन्हें वोट न दिया हो लेकिन वह एक बार फिर सतीश मिश्रा को सोशल इंजीनियरिंग के काम पर लगा चुकी है। कल अयोध्या से अपनी चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि पिछली बार यह भाजपा के बहकावे में आ गए थे लेकिन उन्हें इस बार किसी के बहकावे में नहीं आना चाहिए। यूपी के मुख्यमंत्री योगी का वह बयान भी शायद आपको याद होगा जिसमें उन्होंने हनुमान को दलित बताया था। समाजवादियों की घड़ी की सुईया यादव व मुस्लिम वोटों के इर्द—गिर्द ही घूमती रही हैं जो आज भी वहीं टिकी हैं। पश्चिम बंगाल के चुनाव में भले ही भाजपा हार गई हो लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने मछुआ समुदाय का वोट पाने के लिए नेपाल तक की दौड़ लगाई थी। इन पांच राज्यों के चुनाव को जिसमें यूपी भी शामिल है इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि इन चुनावों के परिणाम ही अगले लोकसभा चुनाव का रुझान तय करेंगे यही कारण है कि सभी दलों के नेता अब जमाते विशेष की दौड़ लगा रहे हैं। मंदिर—मस्जिद तथा मंडल—कमंडल की नब्ज को देश के नेताओं ने न सिर्फ मजबूती से पकड़ रखा है बल्कि उसका भरपूर फायदा उठाते रहे हैं। सवाल यह है कि इस देश का आम मतदाता जिसके बारे में कहा जाता है कि वह बहुत समझदार हो चुका है कब इस जाति धर्म की राजनीति से अपना पल्ला छुड़ाने में सक्षम होगा? कब वह तमाम राजनीतिक संर्कीणताओं से ऊपर उठकर एक योग्य तथा राष्ट्र व समाजसेवी को अपना नेता चुनना सीख पाएगा?

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