इक्कीस साल और दस मुख्यमंत्री! कपड़ों की तरह मुख्यमंत्री बदलने के लिए जाने जाने वाले उत्तराखण्ड ने अपनी इस रवायत को जारी रखते हुए एक बार फिर अपने मुख्यमंत्री को बदल दिया है। निवर्तमान मुख्यमंत्री हो चुके तीरथ सिंह रावत महज 115 दिन मुख्यमंत्री रह कर अब तक सबसे कम समय मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड अपने नाम दर्ज करा चुके है। सूबे के इस राजनीतिक चलन से ऐसा लगता है कि इस राज्य का निर्माण विकास के लिए नहीं बल्कि मुख्यमंत्रियों की उत्पत्ति के लिए ही हुआ है और यह राज्य मुख्यमंत्रियों की एक प्रयोगशाला है। भले ही वर्तमान सत्तारूड़ भाजपा इस अदला बदली में अपने राजनीतिक लाभ के अवसर तलाश रही हो लेकिन उससे अहम सवाल यह है कि सूबे की जनता अपने आपको ठगा महसूस कर रही है। क्या उसने इसी लिये भाजपा को 70 में से 57 सीटों पर जीत दिलाई थी? आज हर किसी के मन में बस एक ही सवाल है। पार्टी के नेता जिस विकास का दावा कर रहे है वह उनकी आत्मसंतुष्टि के लिए काफी हो सकता है। अगर भाजपा ने अपने पांच साल के इस कार्यकाल में विकास के कुछ काम किये होते तो शायद उसे इस अदला बदली की जरूरत ही नहंीं पड़ती। डबल इंजन सरकार तो डबल विकास का भरोसा दिलाकर 2017 के चुनाव में रिकार्ड बहुमत से सत्ता में आने वाली भाजपा पर 2022 में मतदाता अब क्या भरोसा जता पायेंगे? यह भले ही चुनाव नतीजों के बाद पता चलेगा लेकिन आज आम आदमी से लेकर खुद भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं तक के मन में सैकड़ों सवाल है। क्या भाजपा नेता यह बता पायेंगें कि उन्हे तीन—तीन मुख्यमंत्री बदलने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या जिस संवैधानिक संकट का हवाला देकर अब तीरथ को हटाया गया है उसकी जानकारी भाजपा के नेताओं को नहीं थी? जिस संवैधानिक सकंट का हवाला भाजपा दे रही है वह किसी के गले नहीं उतर सकता है यही कारण है कि अब भाजपा के इस फैसले में राजनीतिक विशेषज्ञों को किसी बड़े राजनीतिक षडयंत्र की बू आ रही है। जिसका खुलासा भले ही अभी हो न हो लेकिन आने वाले समय में होना तय है। किसी भी राजनीतिक दल या नेता को इतना नासमझ नहीं समझा जा सकता है कि किसी घटनाक्रम के परिणाम पर विचार ही न करें। उत्तराखण्ड का राजनीतिक इतिहास इसका साक्षी है कि चुनावी लाभ के लिए ऐन चुनाव पूर्व किये गये बदलावों के परिणाम हमेशा घातक ही रहे है। बात चाहे नित्यानंद स्वामी को हटाकर भगत दा को सीएम बनाने की हो या फिर डा. निशंक को हटाकर फिर बीसी खण्डूरी को सीएम बनाने की हो अथवा विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को लाने की हो। सवाल यह है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टी यह गलती कैसे कर सकती है? लेकिन जो गलती होनी थी वह हो चुकी है। भाजपा अब चाहे जितने चेहरे बदल ले उसका कोई लाभ उसे होने वाला नहीं है। अपनी जो हास्यापद स्थिति राज्य में भाजपा ने पैदा की है इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है उसने विपक्ष की राह को और भी आसान कर दिया है।