तीन कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसानों के आंदोलन को अब एक साल होने जा रहा है। इस आंदोलन को भले ही संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं द्वारा इसे गैर राजनीतिक और गैर सांप्रदायिक तथा अहिंसक बनाए रखने के लाख प्रयास किए गए हो लेकिन अब तक लाल किले पर ट्रैक्टर रैली के दौरान निशान साहिब का ध्वज फहराए जाने तथा सुरक्षाकर्मियों को ट्रैक्टर से रौंदे जाने से लेकर खीरी लखीमपुर में मंत्री पुत्र की कार से किसानों को रौंदे जाने जिसमें 4 किसानों सहित आठ लोगों की मौत हो गई थी और अब सिंधु बॉर्डर पर एक युवक की हत्या कर उसका शव पुलिस बैरिकेडिंग पर लटकाए जाने सहित अनेक ऐसी वारदातें सामने आ चुकी हैं जो इस आंदोलन को उसके उद्देश्यों से भटकाने में मददगार रही है। सिंधु बॉर्डर पर युवक की निर्मम हत्या का भले ही किसान आंदोलन से कोई लेना देना न सही लेकिन राजनीतिक दलों के नेता जो हर घटना में राजनीतिक मुद्दा तलाश लेते हैं इस घटना को भी किसान आंदोलन से जोड़ने में कोई कोर कसर उठा कर नहीं रख रहे हैं। इस मामले को लेकर किसान आंदोलन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका इसका उदाहरण है। बसपा सुप्रीमो इसे दलित युवक की हत्या बताकर अपना अलग राग अलाप रही है। संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं का कहना है कि इस हत्या से किसानों और आंदोलन का कोई लेना देना नहीं। कुछ निहंग सिखों ने इस हत्या की जिम्मेदारी ली है तथा इसके पीछे के कारण भी गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी बताया गया है और एक आरोपी पुलिस में सरेंडर भी कर चुका है फिर भी इसे किसान आंदोलन से जोड़ा जा रहा है। इस आंदोलन को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में इसे पहले खालिस्तान समर्थकों से भी जोड़ा जा चुका है तथा किसानों को आतंकवादी और गुंडे व मवाली तक कहा जा चुका है। किसान आंदोलन पर होने वाले खर्च को लेकर भी विदेशी फंडिंग के आरोप लगाए जाते रहे हैं। हालात यह है कि अब इन किसान नेताओं को अपने आंदोलन को तमाम आरोपों और मुकदमों से बचाने की जंग लड़ना भी मुश्किल हो गया है। लखीमपुर खीरी की घटना के बाद इस किसान आंदोलन ने जो गति पकड़ी है उसे लेकर केंद्र और यूपी सरकार की मुश्किलें इतनी बढ़ चुकी है कि उन्हें आने वाले दिनों में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता दिख रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा पर अब किसान आंदोलन भारी पड़ता दिख रहा है। यही कारण है कि इसे दबाने कुचलने और खत्म करने के लिए केंद्र और यूपी सरकार किसी भी हद तक जा सकती है। आने वाले कुछ माह में इस आंदोलन का भविष्य तय हो सकता है चाहे केंद्र सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले या फिर यह आंदोलन अपनी उग्रता की हदें पार करता दिखे जो भाजपा की सत्ता को हिला दे। लेकिन अब इस आंदोलन का निष्कर्ष अवश्य निकलेगा।