राजनीतिक दिशाभ्रम की स्थिति

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अट्ठारवींं लोकसभा चुनाव के बाद आये परिणामों ने देश की राजनीति के मिजाज को सिर्फ बदला ही नहीं है बल्कि 77 साल के राजनीतिक मुद्दों की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। जिनके सहारे कांग्रेस आधे दशक से अधिक समय तक सत्ता में बनी रही और अब 2014 में सत्ता में आने वाली भाजपा अगले 50 साल तक सत्ता में बने रहने का सपना संजोय बैठी थी। भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता में आने में सफल जरूर रही लेकिन गठबन्धन सरकार को साधने की चुनौती ने उसे जितना असहज कर दिया है उतना असहज पहले कभी कोई भी गठबन्धन सरकार नहीं रही है। 2004 से 2014 तक यूपीए गठबन्धन की सरकार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अपने पूरे 10 साल सत्ता पर काबिज रही लेकिन ऐसी स्थिति उसकी कभी नहीं देखी गयी जैसी वर्तमान सरकार की है। भाजपा के पास इस समय जितना संख्या बल है कांग्रेस के पास भी इससे ज्यादा सीटें नहीं थी। फिर सरकार की इस बेचैनी की वजह क्या है? यह वर्तमान समय में सबसे अधिक चर्चा का मुद्दा है। क्या सरकार को अपने जेडीयू और टीडीपी जैसे सहयोगियों पर भरोसा नहीं है? जिनके सहारे के बिना यह सरकार नहीं चल सकती। या फिर सरकार में बैठे भाजपा के नेता कांग्रेस के प्रभावशाली तरीके से आगे बढ़ने को लेकर चिंतित है। जिसके नेतृत्व में इंडिया गठबंधन सत्ता से बाहर रहकर भी मजबूत और अधिक मजबूत होता रहा है। चुनाव आयोग द्वारा चार राज्यों में एक साथ चुनाव न करा कर सिर्फ दो राज्यों हरियाणा और जम्मू कश्मीर में ही चुनाव कराने को लेकर उठने वाले सवाल हो या फिर 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा सेक्यूलर सिविल कोड के अनुसार देश को आगे बढ़ने के सुझाव की बात। इन सभी बातों को राजनीति के जानकार सरकार की सोच और उसके भविष्य से जोड़कर देख रहे है। जिन दो राज्यों में चुनाव घोषित किये गये है उनके परिणाम 4 सितम्बर को आने है चुनाव आयोग को अगले 15—20 दिन के अन्दर ही महाराष्ट्र और झारखण्ड में चुनाव का कार्यक्रम घोषित करना ही पड़ेगा। क्योंकि महाराष्ट्र सरकार का कार्यकाल नवम्बर में समाप्त हो रहा है। वहीं यूपी की 10 और बिहार तथा उत्तराखण्ड राज्य सहित कुछ राज्यों में उपचुनाव होने है वायनाड लोकसभा का उपचुनाव भी होगा ही किन्तू इन चुनावों को टुकड़ों—टुकड़ों में कराकर सरकार क्या परीक्षण करना चाहती है? यह सत्ता में बैठे नेता ही समझ सकते है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी की छवि अपेक्षित रूप से सफल नहीं रही तो क्या अब उसके द्वारा सेक्यूलर सिविल कोड जैसे नये फार्मूलों पर अपनी सफलता की मंजिल तलाशने का काम किया जा रहा है। सच यह है कि सेक्यूलर और सिविल जैसी दोनो बातें एक साथ नहीं हो सकती है। कम्यूनल व्यवस्था के कारण ही कामन सिविल कोड अस्तित्व में आया है लेकिन अब जिस सेक्यूलर सिविल कोड की बात हो रही है उसे कोई नहीं समझ सकता है। यह सत्ता द्वारा जो दिशाभ्रम की स्थिति पैदा की जा रही है इसके पीछे क्या है यह सरकार ही जान सकती है।

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