नेताओं में मची भगदड़ के मायने

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यूं तो जब भी चुनाव होते हैं नेताओं का एक दल से दूसरे दल में आने—जाने का दौर शुरू होना कोई नई बात नहीं है देश में जब से गठबंधन की राजनीति शुरू हुई है उसने अवसरवादी नेताओं के लिए अवसरों को और भी आसान बना दिया है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस भगदड़ में अप्रत्याशित रूप से हुई वृद्धि इन दिनों चर्चाओं के केंद्र में है। बीते कल दो ऐसी घटनाएं सामने आई जिन पर अगर ध्यान दिया जाए तो इस भगदड़ के कारणों को आसानी से समझा जा सकता है कल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा उत्तराखंड में थे और प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भटृ उन्हें हारी हुई विधानसभा सीटों पर जीत के लिए किए गए कामों की जानकारी दे रहे थे जिसमें उन्होंने बताया कि उन्होंने 15 हजार से अधिक कांग्रेस व अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल किया है। दूसरी एक अन्य घटना है कांग्रेस के प्रवक्ता गौरव वल्लभ, मुक्केबाज वीरेंद्र और अनिल शर्मा तथा राजद नेता विनोद ताबड़े का भाजपा में शामिल होने की। इन दोनों ही घटनाओं पर अगर गौर किया जाए तो यह साफ हो जाता है कि भाजपा द्वारा विपक्षी दलों को कमजोर करने के लिए एक सुनियोजित अभियान के तहत उन्हें भाजपा में शामिल किया जा रहा है। इस भगदड़ के पीछे ऐसे एक नहीं अनेक कारण है। गौरव वल्लभ पटेल जैसे नेता भले ही इसके तमाम कारण के रूप में कांग्रेस की नीतियों या सोच से जुड़ी कोई बात क्यों न कह रहे हो लेकिन यह सच नहीं है। कोई भी नेता जब किसी पार्टी को छोड़ता है या उससे जुड़ता है तो उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है। आज के दौर के युवा नेताओं की अपनी कोई राजनीतिक सोच या विचारधारा नहीं है। राजनीति का ग्लैमर उन्हें राजनीतिक दलों तक लेकर जाता है और जब उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उन्हें पूरी होती नहीं दिखती है तो वह इधर—उधर अपना राजनीतिक भविष्य तलाशने में जुट जाते हैं जहां तक कुछ बड़े या पहली पंक्ति के नेताओं की बात है तो बीते कुछ सालों में भ्रष्टाचार के मामले में फंसे नेताओं ने भी ईडी व सीबीआई की कार्यवाही से बचने या जेल जाने के डर से भी भाजपा में जाना ज्यादा बेहतर समझा है। नेताओं को सत्ता में बने रहने की भूख भी इस भगदड़ का कारण रही है अनेक ऐसे नेता भी हैं जो जब कांग्रेस सत्ता में थी तो कांग्रेस के साथ थे लेकिन अब भाजपा की सरकार में मंत्री बने हुए हैं इन नेताओं को सत्ता से बाहर रहना अच्छा नहीं लगता है भले ही उन्हें कितने भी दल बदलने पड़े। एक खास बात और अहम बात यह है कि किसी नेता के इधर—उधर आने—जाने से किसी भी दल को कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है। दूसरी एक अहम बात है कि जब नेताओं और राजनीति का समाज से कोई सरोकार न रहे तो वह राजनीति और नेतागिरी भी किसी काम की नहीं रह जाती है। कांग्रेस को भले ही इस भगदड़ का सबसे बड़ा नुकसान हुआ हो लेकिन आज उसकी सोच यही है कि ऐसे नेताओं का कांग्रेस छोड़कर चले जाना ही अच्छा है जिनकी सोच कांग्रेसी नहीं है।

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