यह कैसा पहाड़ प्रेम?

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भले ही पहाड़ के आम लोगों को पहाड़ से कितना भी प्रेम क्यों न रहा हो लेकिन सुविधा संपन्न और अमीर जनप्रतिनिधियों को पहाड़ से वास्तव में कुछ लेना—देना रह नहीं गया है। यह बात हम इसलिए कह रहे हैं कि उनकी इस हकीकत को उत्तराखंड के 40 विधायकों का हस्ताक्षरित वह पत्र बयां कर रहा है जो उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को सौंपा है इस पत्र में इन विधायकों ने गैरसैंण में बजट सत्र न आयोजित करने की अपील मौसम की विसंगतियों का हवाला देकर की गई है। खास बात यह है कि मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट ने इसे स्वीकार कर लिया है। सवाल यह है कि अगर सूबे के नेताओं को पहाड़ के मौसम से इतना ही डर लगता है कि फरवरी—मार्च के माह में भी चार—छह दिन के लिए गैरसैंण जाने से कतराते हैं तो उनका यह पहाड़ प्रेम कैसा पहाड़ प्रेम है और क्यों उन्होंने राजधानी गैरसैंण के नाम पर बीते 20 सालों से तमाशा कर रखा है? और अब जब गैरसैंण में राजधानी के नाम पर सैकड़ो करोड़ खर्च किये जा चुके है तब फिर पहाड़ से इस तरह का अलगाव क्यों? अगर ऐसा ही था तो यहां भूमि पूजन से लेकर विधानसभा सत्र का आयोजन टेंट में करने और विधानसभा भवन निर्माण पर इतना खर्च करने की जरूरत क्या थी? राज काज का काम तो देहरादून से चल ही रहा था इसे यहीं से चलने देते रहना चाहिए था। खास बात यह है कि गैरसैंण राजधानी बनाने का श्रेय लेने की होड़ में जुटे भाजपा और कांग्रेस के नेताओं को पहाड़ से कुछ लेना—देना है ही नहीं उन्हें तो इस मुद्दे पर सिर्फ सियासत करनी थी। स्पीकर को खत लिखने वालों में 36 लोग सत्ता पक्ष से हैं। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ही गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया था अब ग्रीष्मकाल में अगर गैरसैंण में विधानसभा सत्र का आयोजन नहीं हो सकता है तो इसका अर्थ है कि कभी नहीं हो सकता, क्योंकि सर्दी और बरसात में तो पहाड़ की स्थिति मौसम के लिहाज से और भी अधिक खराब हो जाती है। तब फिर गैरसैंण के राजधानी बनाने का औचित्य ही क्या शेष रह जाता है। वैसे भी पहाड़ के तमाम नेता अब पहाड़ को छोड़ चुके हैं उन्होंने अपने आशियाने दून,ं हरिद्वार और ऋषिकेश में बना लिए हैं। उनके पैतृक गांव के आवास अब वीरान पड़े हैं। चंद अनिल बलूनी जैसे लोग हैं जो गांव में इगास मना कर पहाड़ से पलायन रोकने की मुहिम में जुटे हैं। अन्यथा इन नेताओं ने पहाड़ को ही नहीं छोड़ दिया है बल्कि अपने परंपरागत चुनावी क्षेत्र और सीटों को भी छोड़ दिया है तथा मैदानी क्षेत्र की सीटों पर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर ली है या करने में जुटे हैं। जो पहाड़ से चुनाव लड़ते भी हैं तो उनकी मजबूरी यह है कि मैदानी क्षेत्र में उन्हें कोई मुफीद सीट नहीं मिल पा रही है। हां पहाड़ के कुछ वयोवृद्ध लोग जरूर पहाड़ छोड़ने को तैयार नहीं है या फिर कुछ लोग पहाड़ बचाने के लिए आज भी जुटे हैं। लेकिन इन लोगों को अपने नेताओं की हकीकत और उनके पहाड़ प्रेम को समझना जरूरी है। तभी पहाड़ को बचाना संभव होगा अन्यथा नहीं।

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