भू—कानून पर भिड़ंत की तैयारी

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इन दिनों उत्तराखंड की सियासत में भू—कानून का मुद्दा चर्चाओं की केंद्र में है। राज्य गठन के 22 सालों में जिस तरह से उत्तराखंड के नेताओं व अधिकारियों से लेकर राज्य के जमीन कारोबारियों के लिए भूमि की खरीद फरोख्त को उनकी कमाई का सबसे लाभकारी और मुफीद जरिया रहा है, उसने बड़े पैमाने पर जायज नाजायज तरीकों या यूं कहें हथकडों के जरिए डाकेमारी की है। अब जमीनों को बचाने के लिए जो हाय तौबा मची हुई है उससे किसी को कोई खास लाभ होने वाला नहीं है क्योंकि चिड़िया खेत चुग चुकी है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी लैंड जिहाद के खिलाफ कार्यवाही में 72 हेक्टेयर जमीन को कब्जा मुक्त कराकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। वहीं वह और उनकी भाजपा सरकार भू—कानून का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए एक के बाद एक समितियाें का गठन कर इसे किसी तरह लोकसभा चुनाव तक ठंडे बस्ते में डालने के प्रयासों में जुटे हैं। अभी राजधानी दून में बीते दिनों निकाली गई स्वाभिमान महारैली में उमड़ी भीड़ देखकर और उसके बाद खम ठोकते तमाम सियासी दलों और नेताओं ने उनकी नींद उड़ा दी है। लोगों को ऐसे में यह संदेश देने की कोशिश भी सत्ता पक्ष द्वारा की जा रही है कि वह इस मामले को लेकर पहले से ही गंभीर हैं। अब एक और कदम आगे बढ़ते हुए मुख्यमंत्री ने राज्य के जिलाधिकारियों से उस अधिकार को भी सीज कर दिया गया है जिसमें उन्हें कृषि व उघान की जमीन की खरीद फरोख्त का निर्णय लेने का अधिकार था। सीएम ने यह रोक उनके द्वारा अपर सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में गठित की हुई हाई लेवल समिति की रिपोर्ट पर अंतिम फैसला लेने तक लगाई गई है। सवाल यह है कि 2022 में मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में भू—कानून का प्रारूप तैयार करने को समिति बनाई गई थी जो सितंबर 2022 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है। सरकार ने जब उस पर अब तक कुछ नहीं किया तो वर्तमान समिति कब रिपोर्ट देगी और कब सरकार उसे पर अंतिम फैसला करेगी? इसकी कोई समय सीमा तय नहीं है जिसका सीधा मतलब है कि लोकसभा चुनाव से पहले इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता है। मामला क्योंकि बहुत ज्यादा पेचीदा है और समाधान आसान नहीं है। एनडी तिवारी सरकार के कार्यकाल में बाहरी लोगों के लिए 500 वर्ग मीटर जमीन आवासीय उपयोग के लिए खरीदने की व्यवस्था की गई थी लेकिन बी.सी.खण्डूरी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इसे घटाकर ढाई सौ वर्ग मीटर कर दिया गया। अब इस ढाई सौ वर्ग मीटर जमीन की खरीद पर भी वेरीफिकेशन और जमीन खरीदने के उद्देश्य बताने की बात कही जा रही है। 20 साल में 40 लाख बाहरी लोग राज्य में आकर बस गए सीधी बात है कि इससे राज्य की डेमोग्राफी तो बदलेगी ही है लेकिन सवाल यह है कि सूबे की सरकार, नेता और सूबे के लोग अब तक कहां सोए हुए थे? क्यों राज्य में कोई स्पष्ट व सशक्त भू कानून नहीं लाया गया। राज्य में उघोग लाने और निवेश लाने की जो कोशिशें हो रही है क्या यह उघोग जमीन पर नहीं हवा में लगेंगे। ऐसे में सरकार 3.30 लाख करोड़ के निवेश की ग्राउंडिंग कहां करेगी राज्य के लोग खुद कश्मीर, गोवा, गुजरात और मुंबई में तो जमीन खरीद लें लेकिन अपने उत्तराखंड में किसी को 1 इंच भी जमीन नहीं खरीदने देंगे यह भला कैसे संभव है। अगर उत्तराखंड की सरकार व प्रशासन अन्य राज्यों के लोगों को उत्तराखंड से भगाएगी तो क्या दूसरे राज्यों में उत्तराखंडियोंं को कोई बसने देगा। हालात यह है कि इस मुद्दे ने पहाड़ और मैदान के मुद्दे को फिर जंग की तैयारी तक पहुंचा दिया है। सरकार को जमीन बेचने वालों से यह पूछना चाहिए कि वह अपनी जमीन क्यों बेच रहे हैं दूसरे राज्यों के लोग उनसे कोई जबरन जमीन तो छीन नहीं रहे हैं। वह मुंह मांगी कीमत दे रहे हैं फिर उनका क्या दोष है? मुद्दा वोट से भी जुड़ा है इस मुद्दे पर सीएम धामी की कड़ी परीक्षा अब होना तय हो चुका है।

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