पहाड़ पर जब भी जोशीमठ आपदा या फिर केदारनाथ आपदा जैसा कोई संकट आता है तो शासन—प्रशासन को तमाम नियम कानून और सही गलत का ज्ञान होने लगता है। हिमालयी क्षेत्र में होने वाले बदलाव का ज्ञान और विज्ञान भी याद आने लगता है लेकिन आपदा के बाद सब कुछ भूल भुलाकर फिर अनियोजित विकास की वही अंधी दौड़ शुरू हो जाती है जो पहाड़ को बर्बादी की कगार पर पहुंचाने का काम कर रही है। हर एक आपदा के बाद उसके प्रभावों के आकलन के लिए विशेषज्ञों की समितियां बनाई जाती है भले ही इन समितियों द्वारा कड़ी मेहनत और अध्ययन तथा शोध के बाद अपनी रिपोर्टों में कितने भी अहम सुझाव दिए जाए लेकिन उन्हें सरकारों द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। 2014 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय तथा 2016 में जल संसाधन मंत्रालय ने सर्वाेच्च न्यायालय में खुद यह स्वीकार किया था कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं से अपूरक क्षति होती है। इसके बावजूद भी 2021 में पुनः गंगा क्षेत्र में विष्णुगाड सहित सात बांध परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई। 2014 में उत्तराखंड सरकार द्वारा जिस क्लाइमेट चेंज एंड एक्शन प्लान को जारी किया था उसमें पर्यटन, तीर्थाटन और धारण क्षमता के अनुरूप होने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन तीर्थ और पर्यटन क्षेत्रों में धारण क्षमता का कोई नियम कानून आज तक लागू किया जा सका है। जोशीमठ आपदा के बाद अब फिर वही राग अलापा जा रहा है कि शहरों की धारण क्षमता का मूल्यांकन किया जाएगा। उदाहरण के तौर पर अगर देखे तो मसूरी में निर्माण कार्य पर प्रतिबंध है लेकिन क्या मसूरी में वास्तव में निर्माण को रोका जा सका है। राज्य में चारधाम ऑलवेदर रोड परियोजना का निर्माण क्या नियमावली व मानकों के तहत किया जा रहा है या हुआ है। इस मुद्दे को लेकर न्यायालय में जितनी भी अपील की गई उन्हें केंद्र सरकार द्वारा सीमाओं की सुरक्षा के लिए अति आवश्यक बताकर खारिज करा दिया गया। हालात यह है कि उत्तराखंड के दर्जनों गांव जिसमें चाई, रैणी, भटवाड़ी, खाट आदि अनेक गांव शामिल है जो भू—धसाव व भूस्खलन की जद में आकर तबाह हो चुके हैं। उत्तराखंड की सबसे बड़ी टिहरी बांध परियोजना को ही ले। जिसके हेरफेर में आने वाले तमाम गांव अब भू धसाओ की मार झेल रहे हैं। पहाड़ में बांध बनाए जाएं या सुरंग बनाई जाए पहाड़ों को काटकर चौड़ी—चौड़ी सड़के बनाई जाए या फिर जोशीमठ जैसे शहर बसाए जाएं जहा न सीवर सिस्टम हो न ही कोई ड्रेनेज सिस्टम हो ऐसे सभी शहरों का एक दिन वैसा ही हश्र होना सुनिश्चित ही है जैसा कि वर्तमान में जोशीमठ में हो रहा है विकास की अंधी दौड़ में पहाड़ के पर्यावरणीय और भूगर्भीय संतुलन को अगर बनाने के लिए बनाई गई योजनाओं का कड़ाई से पालन नहीं किया जाएगा तो पहाड़ को आपदाओं से नहीं बचाया जा सकता है। वर्तमान समय में जोशीमठ की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर को बचाने की जो जद्दोजहद जारी है वह कितनी सफल होगी यह समय ही बताएगा लेकिन इस समस्या का स्थाई समाधान ढूंढे जाने की जरूरत है तभी पहाड़ों को बचाया जा सकता है।