धामी चले गांव की ओर

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि भारत के विकास का रास्ता गांवों से होकर जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों और गांव तथा कृषि के विकास पर आजादी के बाद सबसे कम ध्यान दिया गया यही कारण है शहर सरसब्ज होते गए और गांव उजड़ते चले गए और अन्नदाता की स्थिति तो इतनी खराब होती चली गई की आर्थिक तंगी से जूझते—जूझते वह आत्महत्याओं पर विवश हो गए। बीते कल धामी सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों में चौपाल योजना शुरू करने और इन चौपालों में खुद भी उपस्थित होने की बात कही है। उन्होंने हर गांव के विकास के लिए एक मास्टर प्लान तैयार करने के भी निर्देश दिए। प्रत्येक गांव में एक पर्यावरण मित्र की तैनाती की व्यवस्था करने को कहा है। अभी जब प्रधानमंत्री मोदी माणा गांव आए तो सीएम धामी ने माणा गांव को सीमांत गांव की बजाय प्रथम गांव होने की बात कही थी। पीएम मोदी ने भी उनकी इस सोच को अनुशरणीय बताया था। सीएम धामी ने अब इन प्रथम गांवों के लिए प्रथम गांव समेकित विकास योजना शुरू करने की बात भी कही है। वह गांवों में कैबिनेट बैठक करने से लेकर 2025 में राज्य स्थापना की रजत जयंती के अवसर पर गांवों में भी कार्यक्रमों व समारोहों के आयोजन की बात कह रहे हैं। लेकिन सीएम धामी गांवों के विकास की इन तमाम बातों पर कितना अमल कर पाएंगे यह आने वाला समय ही बताएगा। क्योंकि अब तक का तजुर्बा कुछ अच्छा नहीं रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने सभी सांसदों व मंत्रियों से एक—एक गांव गोद लेने और उसे आदर्श गांव बनाने की बात कही थी। और सांसदों व मंत्रियों ने गांव गोद भी लिए थे लेकिन इससे आगे कुछ नहीं हुआ। उन्होंने कभी एक बार भी उन गांवों में जाकर यह देखने की जरूरत नहीं समझी कि वहां कुछ हो भी रहा है या नहीं। रही बात गांवों में कैबिनेट बैठक आयोजित करने की तो यह भी कोई नई पहल नहीं है। 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा रुड़की के एक गांव चुड़ियाला में पहले भी राज्य कैबिनेट की बैठक की जा चुकी है। सवाल यह है कि इस काम की निरंतरता कैसे बनाए रखी जाए। जब राज्य का कोई सीएम जनता दर्शन और जनता दरबार जैसे कार्यक्रमों, जिनका आयोजन मुख्यमंत्री आवास पर ही किया जाता है तक को नियमित रूप से जारी नहीं रख सके है तो चौपालों में हर गांवों तक सीएम के पहुंचने की कल्पना करना भी कठिन है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद भी राज्य से जो पलायन जारी है उसको अब तक नहीं रोका जा सका है। सूबे के 17 सौ गांव निर्जन हो चुके हैं या फिर उनमें चंद बुजुर्ग ही शेष बचे हैं। अगर गांवों की ओर सरकारों का ध्यान रहा होता तो क्या यह स्थिति पैदा होती। पहाड़ी दुर्गम क्षेत्रों में सैकड़ों स्कूलों में ताले लटक चुके हैं। पहाड़ के लोग आज भी अपने बीमार परिजनों को कंडी डोली में मीलों मिल चलने पर मजबूर है। राज्य गठन के 22 सालों में गांवों के विकास का जो काम नहीं हो सका क्या 2025 तक यानी 3 साल में किया जाना संभव है? लेकिन इस सब के बीच भी अगर सीएम धामी गांवों की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए।

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