खिलाड़ियों की लड़ाई आर—पार पर आई

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सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग सिर्फ अपने मन की बात देशवासियों को सुनाते रहे और देश के लोगों की बात सुनने को तैयार न हो अथवा अपनी बात सत्ता के कानों तक पहुंचाने की कोई कोशिश लोकतांत्रिक तरीके से करें भी तो उसके उत्पीड़न से उनका आंदोलन खत्म कराने की कोशिश की जाए या फिर उन लोगों को आंदोलन कराते—कराते थका दिया जाए तो इसे सिर्फ सत्ता की मदहोशी ही कहा जा सकता है। देश की महिला पहलवानों का आंदोलन इसकी ताजा मिसाल है। कुश्ती महासंघ के निवर्तमान अध्यक्ष बृजभूषण सिंह पर अपने शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली इन महिला पहलवानों को उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कराने में न सिर्फ 6 महीने का समय लग गया अपितु हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दखल और जंतर—मंतर आंदोलन के बाद वह इस मुकाम तक पहुंच सके। फिर भी कार्यवाही आगे बढ़ती नहीं दिखी तो यह खिलाड़ी संसद कूच तक पहुंच गई जहां इन्हें सुरक्षा बलों द्वारा सड़कों पर घसीटे जाने और रोने बिलखने की तस्वीरें देश ही नहीं दुनिया भर के लोगों ने देखी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को सातवें आसमान तक ले जाने का श्रेय लेने और ढोल पीटने वालों के कानों पर फिर भी जूं तक नहीं रेंंगी जो यह सोच पाते की जिस मुद्दे पर उनकी देश और दुनिया भर में इस कदर किरकिरी हो रही है उस पर वह कुछ तो बोले। देश और दुनिया भर से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न जाने कहां कहां से उदाहरण ढूंढ कर लाते और सुनाते हैं लेकिन इतने दिनों में इन महिलाओं के इस आंदोलन पर क्यों उन्होंने एक शब्द भी बोलने या उन्हें बुलाकर खुद उनकी बात सुनने की जरूरत नहीं समझी यह बात हर किसी को हैरान करने वाली है। अपनी बात न सुने जाने और इंसाफ के लिए लड़ने वाली इन महिला पहलवानों का उत्पीड़न किए जाने से वह इतनी अधिक आहत है कि गंगा में अपने मेडल विसर्जित करने का फैसला करने से लेकर उनके द्वारा एशियाई खेलों में भाग न लेने तक की चेतावनी दी जा चुकी है। यही नहीं यह रेसलर अब अपनी नौकरी छोड़ने की बात कर रही हैं। जिस देश में महिला सशक्तिकरण के हर रोज नए नारे गढ़े जाते हो और बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात की जाती हो उस देश में अगर देश का नाम रोशन करने वाली बेटियों की बात भी न सुनी जाए तो यह सत्ता की कैसी निष्ठुरता है। पूरा देश जानता है कि बृजभूषण सिंह ने इतने समय तक अपना पद भी नहीं छोड़ा या अभी तक उनके खिलाफ अगर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है तो इसके पीछे सत्ता का संरक्षण ही है। इस मुद्दे को लेकर देशभर के खिलाड़ी और खेल प्रेमी सरकार के रवैए से नाखुश हैं वहीं तमाम खाप पंचायतों और भाकियू सहित तमाम राजनीतिक दल इन महिला पहलवानों के समर्थन में खड़े हैं लेकिन सत्तापक्ष किसानों के साल भर लंबे चले आंदोलन की तरह इन खिलाड़ियों के आंदोलन को दबाने पर आमादा है। आए दिन इस प्रकरण में एक नया शगुफा छोड़ दिया जाता है और थोड़ी शांति के बाद फिर आग भड़क उठती है। निसंदेह इस स्थिति को देखकर आम आदमी भी यह सोचने पर विवश है कि यह कैसा लोकतंत्र है जो किसी की भी बात मानना तो दूर सुनना भी पसंद नहीं करता है।

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