मुफ्त की चुनावी सौगातों की बरसात

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बीते एक—दो दशक में राजनीति के चित्र और चरित्र में जो बदलाव आया है वह देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है। राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद लोकहितों को भुलाकर मनमाने तरीके से राजकाज चलाना शुरु कर देते हैं और जब चुनाव आते हैं तो जनता को मुफ्त की सौगातें बांटकर या जन भावनाओं को उद्वेलित करने वाले मुद्दों को हवा देकर मतदाताओं को भ्रमित कर उनका वोट पाने के जुगाड़ में जुट जाते हैं। आगामी छह माह में उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सहित जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उन्हें लेकर इन दिनों देश भर में कुछ इसी तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है। देश के लोगों ने कोरोना काल में जिस तरह की मुसीबतें झेली हैं उनसे हम सभी अवगत हैं। सरकारों ने इस दौरान लोगों की कितनी मदद की तथा उनका कोरोना प्रबंधन कैसा रहा यह भी किसी से छिपा नहीं है। जिनके परिजन बिना इलाज के तड़प—तड़प कर मर गए और जिनके शवों को सम्मानित ढंग से अंतिम संस्कार का हक भी नहीं मिल सका उस सबको भुला कर अब सत्ता में बैठे लोग कोरोना पीड़ितों की सहायता में जुटे हुए हैं। गरीबों को मुफ्त 5 किलो राशन, मृतक के परिजनों को आर्थिक सहायता से लेकर न जाने किस—किस तरह से हर वर्ग की मदद करने वाली योजनाओं के पिटारे खोले जा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार द्वारा भी अब तक कोरोना वारियर्स और फ्रंटलाइन वर्करों को नगद प्रोत्साहन राशि से लेकर चालक—परिचालक, टूर ऑपरेटरों तथा अन्य तमाम वर्गों को सहायता के लिए अनेक घोषणाएं कर चुकी है। बात चाहे चालक—परिचालक व क्लीनरों को 6 महीने तक 2—2 हजार की नगद सहायता देने की हो या फिर मुफ्त राशन देने की यह सभी मदद अगले छह माह तक ही दी जानी है। क्योंकि 6 माह बाद चुनाव होना है। केंद्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारों द्वारा जहां आगामी साल फरवरी में चुनाव होना है इन योजनाओं को मुस्तैदी से तथा तत्काल प्रभाव से शुरू किया जा रहा है। आपको याद होगा पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने राज्य में महिलाओं के लिए घसियारी योजना की घोषणा की थी किंतु आज तक इसे शुरू नहीं किया जा सका है। लेकिन चुनावी लाभ की योजनाओं के तुरंत शासनादेश जारी हो रहे हैं। चुनाव के दौरान मुफ्त की सौगातो को बांटने का इस कदर चलन बढ़ा है कि नेताओं में यह सोच बस गई है कि हर वर्ग को चुनाव से पहले 10—5 हजार नगद जेब में डाल दो या फिर कोई ऐसी घोषणा कर दो जिससे चुनाव बाद हर आदमी को उनसे 10—5 हजार हर साल फायदा मिले। बस चुनाव जीतने के लिए काफी है बाकी कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। मुफ्त बिजली पानी की घोषणाएं भी ऐसी घोषणाएं हैं। सूबे की सरकार जो अब ताबड़तोड़ भर्तियां निकाल रही है उसने बीते 4 साल में कितने बेरोजगारों को नौकरी दी यह पूछने वाला कोई नहीं है। जनता को भी अब मुफ्त की सौगातों की लत लग चुकी है उसकी सोच भी बदल गई है लोग कहते हैं क्या पहले कभी किसी ने कुछ दिया अब कुछ मिल तो रहा है। लेकिन यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कितनी घातक है यह एक चिंतनीय सवाल है।

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