आंदोलनकारियों का सपना और सवाल

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अलग राज्य की लड़ाई लड़ने वाले वह राज्य आंदोलनकारी जिन्होंने इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया उनका राज्य की वर्तमान हालत को लेकर दुखी होना स्वाभाविक है। राज्य गठन के बाद सूबे के नेताओं ने भले ही सीना ठोक—ठोक कर यह बात कही हो कि वह उत्तराखंड को राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य बनाएंगे, लेकिन उनका आचरण और कार्यश्ौली सदैव इसके विपरीत ही रही है। यही कारण है कि राज्य गठन के दो दशक बीत जाने के बाद भी कई ऐसे सवाल हैं जो आज भी सवाल ही बने हुए हैं। बीते कल इन राज्य आंदोलनकारियों ने अपनी 9 सूत्रीय मांगों को लेकर सीएम आवास कूच किया गया। उनकी इन मांगों में भले ही आधी से अधिक मांगे ऐसी रही हो जो उनके निजी हितों से जुड़ी हुई हो लेकिन कई सवाल ऐसे भी हैं जो राज्य हित और कल्याण से जुड़े हैं। उदाहरण के तौर पर गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाए जाने के मुद्दे को ही लीजिए, जब राज्य आंदोलन के समय ही यह तय हो गया था कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही होगी तो सूबे के नेताओं ने दो दशक तक इस मुद्दे को क्यों राजनीतिक दांव पेंच में उलझा कर रखा गया? आज तक भी नेता और दल इस पर क्यों राजनीति कर रहे हैं? कल कांग्रेस के जो नेता इन आंदोलनकारियों को समर्थन देने पहुंचे और अब यह कह रहे हैं कि वह आंदोलनकारियों के मुद्दों को विधानसभा में उठाएंगे या सत्ता में आएंगे तो उनकी सभी मांगों को पूरा करेंगे? क्या उन नेताओं से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब आप सत्ता में थे तब आपने कुछ क्यों नहीं किया। गैरसैंण में राजधानी के लिए भूमि पूजन और नींव की ईट रखने वाली कांग्रेस के पास मौका नहीं था जब वह गैरसैंण को स्थाई राजधानी बना सकती थी? ठीक उसी तरह क्या वर्तमान भाजपा सरकार जिसने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया? क्या वह गैरसैंण को स्थाई राजधानी नहीं बना सकती थी? लेकिन किसी ने भी ऐसा करने का साहस नहीं दिखाया। क्योंकि यह राजनीतिक दल इस मुद्दे का हल चाहते ही नहीं है। यह हैरान करने वाली बात है कि आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के साथ हुई ज्यादतियों और हिंसा को भी किसी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया किसी भी सरकार ने इस मामले में मुनासिब पैरवी की होती तो रामपुर तिराहा कांड, मसूरी और खटीमा कांड के दोषी आज खुले नहीं घूम रहे होते। राज्य गठन के बाद जहां नेता सत्ता के जोड़—तोड़़ और लूट खसोट में व्यस्त हो गए वही आंदोलनकारियों की सूची में शामिल होने और सरकारी सुविधाओं की लूट की ऐसी होड़ मची कि 20 साल में भी चिन्हीकरण का काम पूरा नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य बनाना संभव है? सहज समझा जा सकता है।

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