देहरादून। भले ही उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में 6 माह का समय सही, लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने चुनावी तैयारियों को धार देना शुरू कर दिया है। कांग्रेस भले ही विपक्ष में है लेकिन महंगाई, बेरोजगारी तथा कोरोना प्रबंधन की विफलता सहित कई राष्ट्रीय मुद्दों के साथ भू—कानून और देवस्थानम बोर्ड जैसे कई स्थानीय मुद्दे उसके पास है। जबकि भाजपा अपने चुनावी प्रचार और प्रबंधन के मुद्दे पर चुनाव जीतने का खाका खींच रही है।
त्रिवेंद्र सरकार द्वारा किया गया देवस्थानम बोर्ड गठन का फैसला अब भाजपा सरकार के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन चुका है। तीन माह के अंदर दो मुख्यमंत्री और गैरसैंण को कमिश्नरी बनाए जाने जैसे फैसलों को पलटने से भाजपा और सरकार की छवि पहले ही खराब हो चुकी है। अब अगर देवस्थानम बोर्ड के फैसले को अगर सरकार पलटती है तो यह उसकी और भी किरकिरी कराने वाला होगा। निवर्तमान सीएम तीरथ सिंह रावत से लेकर सीएम धामी तक इस मुद्दे पर पुनर्विचार के आश्वासन से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
सवाल यह है कि भाजपा खुद ही इस प्रस्ताव को लाई और उसी ने इसे विधानसभा में पारित भी कराया। अब जब राज्यपाल की मुहर लग चुकी है और यह प्रस्ताव एक्ट बन गया है तब सरकार भला इसे कैसे रद्द कर सकती है। भाजपा के पास अब तीर्थ पुरोहित और हक—हकूक धारियों की नाराजगी को समाप्त करने का कोई रास्ता नहीं बचा है। कांग्रेस इस तथ्य को अच्छी तरह से जान समझ रही है। यही कारण है कि कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल तथा पूर्व सीएम हरीश रावत ताल ठोक कर कह रहे हैं कि कांग्रेस की सरकार बनी तो देवस्थानम बोर्ड को वह रद्द कर देंगे। कांग्रेस के नेताओं द्वारा प्रदेश में सख्त भू—कानून लाने की बात भी कही जा रही है। यह दोनों मुद्दे चुनावी दृष्टि से इतने अधिक महत्व के हैं कि जो चुनाव का रुख पलट सकते हैं। इनकी महत्ता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि संघ ने भाजपा को इन दोनों मुद्दों के शीघ्र समाधान का सुझाव दिया है।
भाजपा की सरकार देवस्थानम बोर्ड के फैसले को नहीं पलट पाएगी तथा एकमात्र शेष बचे मानसून सत्र में नया भू कानून लाना व उसे धरातल पर उतारना भी आसान नहीं होगा। यही कारण है कि कांग्रेस इन्हें लेकर सबसे ज्यादा उग्र दिखाई दे रही है।