उत्तराखंड में कांग्रेस की हार को लेकर कांग्रेसी नेता चिंतन मंथन नहीं कर रहे हैं एक दूसरे का चीर हरण कर रहे हैं। इस हार के बाद अगर कांग्रेसियों के कोई निशाने पर है तो वह पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत है। यह कोई अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि वही इस चुनाव में सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़े थे। भले ही रणनीतिक कारण से पार्टी ने चुनाव पूर्व सीएम का चेहरा घोषित न किया सही लेकिन वह अंतिम समय तक इसके लिए प्रयासरत रहे। यह इत्तेफाक है कि कांग्रेस के हिस्से में एक बार फिर हार आई, अगर पार्टी जीत जाती तो हरीश रावत के अलावा कोई दूसरा मुख्यमंत्री हो ही नहीं सकता था भले ही एक बार फिर पार्टी में विभाजन ही क्यों न हो जाता। हरीश रावत चुनाव हार कर भी हार मानने वाले नहीं है। इस चुनाव की पूरी कमान उन्होंने अपने हाथ में ले रखी थी। डॉ. हरक सिंह को टिकट न मिलना और उनकी अपनी बेटी को टिकट मिल जाना सब कुछ उनके नियंत्रण के कारण ही हुआ। प्रीतम सिंह को अध्यक्ष पद से हटाकर नेता विपक्ष बनाया जाना और गोदियाल को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाया जाना उनकी ही रणनीति का हिस्सा था। चुनाव प्रचार अभियान तक की कमान उन्होंने अपने ही हाथों में रखी। लेकिन चुनावी नतीजों ने एक बार फिर उनकी सारी रणनीतियों और राजनीति कौशल पर पानी फेर दिया। ऐसी स्थिति में अब अगर उन्हें लोग कांग्रेस के वर्तमान हालात के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो इसमें उनकी क्या गलती है उसके बाद हरीश रावत अब अपने ऊपर लग रहे आरोपों से आहत होकर पार्टी से अपने निष्कासन की मांग कर रहे हैं तो इसकी उन्हें जरूरत क्या है? हार की नैतिक जिम्मेदारी के बाद और इस्तीफा, पार्टी छोड़ने के लिए काफी है। लेकिन हरीश रावत ऐसा कुछ नहीं करेंगे। वह यह भी जानते हैं कि पार्टी उन्हें निष्कासित नहीं करेगी। पार्टी ने उनसे तब इस्तीफा नहीं मांगा जब वह 2017 में दो—दो सीटों से चुनाव हार गए थे। हरीश रावत हार मानने वाले नेता नहीं है। उन्होंने सीएम की कुर्सी चले जाने पर भी हार नहीं मानी थी 2016 में प्रदेश कांग्रेस में बड़े विभाजन के बाद भी हार नहीं मानी थी। लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी हार नहीं मानी थी, अब 2022 में भी वह अपनी व पार्टी की हार के बाद भी हार मानने वाले नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि वह हार माने न माने कांग्रेस को हर बार यह जो हार माननी पड़ी है उसकी जवाबदेही से वह बच नहीं सकते हैं। उनके हार न मानने से या स्वयं को सिद्ध करने की जिद पर अड़े रहने से अब न कांग्रेस का कुछ भला होने वाला है और न खुद उनका। हरीश रावत को अब खुद अपने बारे में आत्ममंथन करने की जरूरत है उनकी वरिष्ठता के लिहाज से भी उन्हें अब अपनी यह कुर्ता घसीटन नहीं करानी चाहिए। उन्हें खुद ही अब इस राजनीति की होलिका में अपनी तृष्णाओं का दहन कर देना चाहिए। यह जरूरी नहीं होता कि राजनीति के इस खेल की शुरुआत आपकी अपेक्षाओं के अनुरूप हो और अंत भी, लेकिन इन कमबख्त हसरतों का क्या कीजिए इनका सिलसिला ही कुछ ऐसा है कि कहीं खत्म ही नहीं होता।