कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक अच्छा संकेत है कि उसके नेता अब केंद्र सरकार को कैसे सत्ता से बेदखल करना है? की बात पर फोकस करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस को और आगे ले जाने के लिए क्या करना है, कांग्रेस के नेता अब तक जिस इंडिया गठबंधन के जरिए आगे बढ़ने की कोशिशों में जुटे थे उसमें उसके सहयोगी दलों के नेता उसे आगे नहीं बढ़ने देंगे। बात अरविंद केजरीवाल की हो या फिर ममता बनर्जी की अथवा सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की वह इंडिया के साथ अपनी ही शर्तों पर बने रहना चाहते हैं तथा कांग्रेस पर सामंजस्य बनाने के लिए दबाव बनाए रखना चाहते हैं जिसके पीछे उनकी मंशा है कि कांग्रेस को सीमित दायरे तक ही सीमित रखना है। यही कारण है कि अब कांग्रेस भी इंडिया के दायरे को तोड़कर यूपीए की ओर वापस लौटने का मन बना चुकी है। उसे किस राज्य में कितनी सीटों पर चुनाव लड़ना है या फिर डा. अंबेडकर के अपमान और संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग और हिंदू राष्ट्र के एजेंडे व मोदी मीडिया के खिलाफ तथा देश के संसाधनों को चंद उघोगपतियों के हवाले करने की लड़ाई को कैसे आगे बढ़ाना है यही नहीं इससे भी ज्यादा जरूरी कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को कैसे फिर से प्रभावी तथा सक्रिय बनाना है सब कुछ अपने बल बूते पर करने पर विचार विमर्श शुरू कर दिया है। अभी बीते दिनों ममता बनर्जी द्वारा इंडिया गठबंधन की बागडोर उनके हाथों में सौंपने की खबर आई थी वहीं यूपी और दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस को कितनी सीटें देंगे जैसे मुद्दों पर आप और सपा नेताओं द्वारा दबाव बनाने के प्रयास किए गए थे। कांग्रेस की समझ में अब यह क्षेत्रीय दलों का खेल पूरी तरह से आ चुका है। कांग्रेस को अब यह भी पता है कि कोई भी दूसरा और तीसरा मोर्चा बिना कांग्रेस के केंद्रीय सत्ता तक नहीं पहुंच सकता है। जो भी नेता अपने आप को राजनीति का धुरंधर माने बैठे हैं और देश के प्रधानमंत्री बनने के गुणा जोड़ में लगे हुए हैं उनकी सोच हवा हवाई ही है। बीते 1 साल में कांग्रेस ने जितनी मेहनत अपने आप को सरवाइव करने के लिए की है उसकी मेहनत का फल भी वह दल और नेता ले उड़े जिन्होंने कांग्रेस की राजनीतिक जमीन पर अपनी इमारतें खड़ी की है। कांग्रेस अब उनके खिलाफ पूरी ताकत से खड़ी होगी। दिल्ली का चुनाव इसकी एक बानगी है जहां कांग्रेस ने अब तक 40 45 सीटों पर अपने दमदार प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार कर यह साफ कर दिया है कि मुख्य मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच ही होगा, आप और भाजपा के बीच नहीं। आम जनता में कांग्रेस पर बढ़ता भरोसा तथा एससी, एसटी व दलितों का उसकी ओर बढ़ता झुकाव कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगा। भाजपा भले ही इस स्थिति को अपने लिए मुफीद मान रही हो लेकिन इस बार दिल्ली में आप की सरकार बन पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। सत्ता की चाबी अगर कांग्रेस के हाथ लगी तो वह भाजपा के लिए कम आप के लिए एक बड़ा झटका होगा। दिल्ली का चुनाव पिछले दो चुनावों की तरह एक तरफा कतई भी रहने वाला नहीं है। इस चुनाव में जो त्रिकोणीय मुकाबला होता दिख रहा है उसमें सिर्फ यह देखना ही दिलचस्प होगा कि सबसे बड़ी पार्टी कौन सी होगी कांग्रेस या फिर आप। जहां तक भाजपा का सवाल है वह भले ही इस बार अपनी पूरी ताकत झोंक कर यह प्रयास जरुर कर रही है कि वह दिल्ली न जीत पाने के मिथक को किसी तरह तोड़ सके लेकिन उसके लिए दिल्ली में कोई बड़ा खेला कर पाना संभव नहीं होगा। कांग्रेस की केंद्र में सरकार बनाने या दिल्ली की सत्ता पर वापसी की कोई हड़बड़ी नहीं है। वह अब पूरे धैर्य के साथ अपने संघर्ष को आगे ले जाने की रणनीति बना चुकी है।





