आजादी का अमृत काल आते—आते देश की राजनीति एक ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर देगी जहां संवैधानिक व्यवस्थाओं को तार—तार कर दिया जाएगा और अपनी अनूठी विविधता व अनेकता में एकता के लिए विश्व भर में जाने जाने वाली सभ्यता और संस्कृति को नफरत का जहर तिल—तिल मरने पर मजबूर कर देगा। सत्ता का स्वार्थ तमाम सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ डालेगा तथा उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को या तो पीट—पीट कर मार डाला जाएगा या राजद्रोह के मुकदमो में जेल में डाल दिया जाएगा। शायद यह किसी ने भी नहीं सोचा होगा? मगर वर्तमान के इस सच को कोई नकार भी नहीं सकता है। जिस आरएसएस (संघ) से भाजपा की उत्पत्ति हुई वह भाजपा नेता इस दौर में संघ के महत्व तथा अस्तित्व को न सिर्फ नकार रहे हैं बल्कि चुनौती दे रहे हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस एक बयान को लेकर जिसमें उन्होंने हर मस्जिद की खुदाई करने और मंदिर तलाशने की बात कहते हुए उन नेताओं को फटकार लगाते हुए कहा था कि ऐसा करके वह हिंदुओं के नेता नहीं बन सकते। अब मीडिया चैनलों पर डिबेट के जरिए साधु—संतों द्वारा संघ प्रमुख को ही हिंदू और सनातन धर्म विरोधी प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है क्या यह सब सत्ता में बैठे भाजपा नेताओं की सहमति के बिना किया जा सकता है? गृहमंत्री अमित शाह द्वारा राज्यसभा में डा. अंबेडकर पर जिस तरह की टिप्पणी की गई क्या किसी एक भी भाजपा नेता ने उसे गलत बताने का साहस किया? इसके उलट भाजपा नेता उनकी गलती पर पर्दा डालने के लिए विपक्षी दलों पर डा. अंबेडकर का अपमान करने की दलीले पेश कर रहे हैं वह भी झूठ के सहारे। लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा नेताओं के मन मुताबिक नहीं आए तो संघ के असहयोग का आरोप लगाया गया उसके बाद जब हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे चमत्कारी आए तो संघ प्रमुख ने भी खुद उनका श्रेय बटोर लिया, भले ही कुछ लोग इसे भाजपा और संघ की नूरा कुश्ती मान रहे हो लेकिन भाजपा और संघ के बीच की रस्साकशी को मोदी बनाम मोहन भागवत के रूप में देखा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के नतीजे का उतना प्रभाव तो विपक्षी नेताओं पर नहीं देखा जा रहा है जितना विचलित भाजपा के नेता है। यह उनकी मानसिक उलझन के कारण ही हो रहा है कि वह विपक्ष को काबू में रखने के लिए जो भी हथकंडा अपनाते हैं वह उन्ही पर उल्टा पड़ जाता है। शाह का बयान इसका ताजा उदाहरण है। जिसकी तपिश से पूरे देश की राजनीति में उबाल आया हुआ है खास बात यह है कि विपक्ष कांग्रेस द्वारा अपनी एक साल की रणनीति का जो खाका तैयार किया जा रहा है उसमें अब मोदी ही अडानी व अडानी ही मोदी का मुद्दा नहीं रहा है संविधान बचाओ की लड़ाई से लेकर अब महापुरुषों के नाम और उनका सम्मान बढ़ाने के अनेक ऐसे मुद्दे शामिल हो चुके हैं जो भाजपा को और भी अधिक प्रभावित करने वाले साबित होने वाले हैं। देश के आम आदमी के मन में अब यह बात घर कर चुकी है कि सरकार जिन मुद्दों पर बहस व चर्चा से बचने का प्रयास कर रही है उन मुद्दों के पीछे कुछ तो रहस्य है। जिन्हें सरकार सामने नहीं आने देना चाहती है। संसद कार्यवाही विपक्ष द्वारा गतिरोध पैदा करने के कारण नहीं अपितु इसलिए नहीं चल पा रही है क्योंकि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कार्यवाही चले। अयोध्या में राम मंदिर बनने के बाद अब यह मुद्दा भी हल होने के बजाय अंतहीन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। देश के समाज और अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर कोई बात या चर्चा नहीं हो रही है। यह आजादी का कैसा अमृत काल है और इसका इतिहास कैसा लिखा जाएगा? अब इसकी चिंता फिक्र भी किसी को नहीं है।





