दुर्दशा मजदूर की, मजदूर बनकर देखिये

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महाकवि निराला जी जिन्होने अपने ‘वो सड़क पर तोड़ती पत्थर, जैसी कविता देश के उन तमाम मजदूरों की पीड़ा को बयंा किया था उनके जैसे अन्य तमाम कृषि और लेखक मजदूरों की मेहनत तथा सृजन सार्मथ की प्रशंसा और दीन हीनता बहुत कुछ लिखते रहे है। अभाव व गरीबी का पर्याय रहे मजूदर तबके के इस दर्द को भले ही किसी सरकार या नेता ने समझा हो या न समझा हो लेकिन देश के श्रमिक वर्ग की स्थिति में रत्ती भर का अंतर भी आजादी के 75 सालों में नहीं आ सका है। दलित, गरीब और मजदूरों की हालत सुधारने के नाम पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया आरक्षण की इस व्यवस्था का लाभ गरीब और मजदूरों को कितना मिल सका वह आज हमारे सामने है। इन मजदूरों को साल के 365 दिन कम से कम भोजन तो मिल सके। इस उम्मीद के साथ देश में कांग्रेस द्वारा मनरेगा योजना की शुरूआत की गयी। जिसमें 100 दिन के रोजगार की गांरटी सरकार द्वारा दी गयी थी। लेकिन गरीब मजदूरों की इस योजना में भ्रष्टाचार का ऐसा बोलबाला रहा कि अर्जी फर्जी मजदूरों के नाम सूचीबद्ध कर उनके नाम पर मिलने वाली मजदूरी पर भी बिचौलिए हाथ साफ करने लगे। सरकारी नौकरियों में आरक्षण पाने के लिए देश की उन जातियों में भी होड़ लग गयी जो न गरीब है न पिछड़े है न अति पिछड़े है। और तो और फर्जी जाति प्रमाण पत्र बनवा कर तमाम लोग आरक्षण का लाभ लेने मेें सफल होते रहे। अभी दो दिन पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा में एक चुनावी रैली में 570 अम्बेडकर के संविधान पर बोलते हुए कहा कि बाबा साहिब के उस संविधान जिसमें पिछड़ों के उत्थान की हिमायत की गयी है वह और उनकी पार्टी उस पर काम करने के लिए प्रतिबद्ध है। हरियाणा में 20 फीसदी मतदाता एससी, एसटी वर्ग से है। जिनके लिए उघोगों के माध्यम से रोजगार पैदा करने की बात प्रधानमंंत्री कह रहे थे। राहुल गांधी और कांग्रेस की तो समूची राजनीति कास्ट सेंसस पर आकर टिक गयी हैं वह हर जगह एक ही बात कर रहे है। जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी और वह इसे दिलाकर ही रहेगें। लेकिन इंदिरा गांदी जिन्होने 70 के दशक में देश से गरीबी मिटाने का नारा दिया आज आजारी के महोत्सव काल तक जब देश को आजाद हुए 75 साल बीत चुके है। यह गरीबी नहीं मिट सकी है। वह मजदूर जो पीढ़ियों से मजदूरी करते चले आ रहे है आज भी क्याें इससे ऊपर नहीं उठ सके है? यह एक बड़ा सवाल है। उत्तर प्रदेश जिसे एक सम्पन्न राज्य माना जाता है, के मुजफ्फरनगर के एक मजदूर का बेटा जो जीईई की परीक्षा तो पास कर लेता है लेकिन फीस के लिए जरूरी 17 हजार रूपये न जुटा पाने के कारण आईआईटी मेें दाखिला नहीं ले पाता है। यह आज के मजदूर के दर्द की कहानी है। इस छात्र द्वारा तमाम अदालतों और आयोगों का दरवाजा खटखटाया जाता है मगर कहीं से कोई मदद या राहत नहीं मल पाती है। अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में डीवाई चन्द्रचूड़ की अदालत तक जा पहुंचा है जहंा से छात्र को मदद का भरोसा दिलाया गया। 18 साल के छात्र अतुल का कहना है कि आईआईटी उसका सपना हैं। देखना यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत अतुल के इस सपने का साकार बना पाने में उसकी कितनी मदद कर पाती है। देश में आज भी मजदूर की क्या दुर्दशा है इसका अंदाजा कोई मजदूर बनकर ही लगा सकता है। आत्मनिर्भर भारत, विकसित भारत की बात करना बहुत आसान काम है। लेकिन गरीबों व मजूदरों की स्थिति को समझना और उसका समाधान कर पाना बहुत मुश्किल है।

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