दिल्ली के बहुचर्चित शराब घोटाले में आखिरकार दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल बाहर आ ही गये। देश की सर्वोच्च अदालत ने उन्हे बेल देकर अपनी उस टिप्पणी को सटीक साबित कर दिया जिसमें कहा गया था कि बेल के नियम है और जेल अपवाद। किसी भी मामले के आरोपी को ट्रायल के नाम पर लम्बे समय तक जेल में नहीं रख सकते। संजय सिंह, मनीष सिसौदिया, के कृष्णा को पहले ही इस मामले में जमानत मिल चुकी है। सीबीआई व ईडी के प्रयास भले ही उन्हे सालों साल जेल में रखने के प्रयास में सफल नहीं हो सके हो लेकिन यह हैरान करने वाला ही है कि एक मुख्यमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति को पांच महीने जेल में रखा गया व उन्हे पहले लोकसभा और दो राज्यों के विधानसभा चुनावों से दूर रखा गया। ठीक वैसा ही एक उदाहरण झारखण्ड के मुख्यमंत्री सोरेन का भी है। जिन्हे सिर्फ आरोपों के आधार पर पांच माह तक जेल में रखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कल उन्हे बेल देने के समय एक बार फिर सीबीआई को यह नसीहत दी गयी कि अच्छा होता कि सीबीआई पिजंरे के तोते की छवि से बाहर आने का प्रयास करती। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद एक बार फिर से इस मुद्दे पर बहस शुरू होना स्वाभाविक है। कि क्या सीबीआई जैसी सर्वोच्च जांच एजेंसिया पिंजरे का तोता भर बनकर रह गयी है। और वह सत्ता के इशारे पर विपक्ष के दमनकारी कार्यो में उसका सहयोग करती है। यह बड़ी हास्यापद बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा संसद में 12 साल पुरानी सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का जिक्र करते हुए कहा जाता है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में सीबीआई पिंजरे का बंद तोता थी जो सरकार के इशारे पर काम करती थी लेकिन अब उनके कार्यकाल में वह भ्रष्टाचारियों को उनकी सही जगह पहुंचाने का काम कर रही है। लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट ने 12 साल पुरानी उस टिप्पणी को दोहराकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। भाजपा के प्रवक्ताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर जो सफाई दी जा रही है वह और भी हैरान करने वाली है। वह कह रहे है कि सुप्रीम कोर्ट का वह आदर करते है लेकिन सीबीआई जो पहले पिंजरे का तोता थी अब बाज बन गयी है जो कि भ्रष्टाचारियों पर तीखे वार कर रही है और उन्हे नोच रही है। गजब बात यह है कि सीबीआई तोते से बाज बन गयी तब फिर भाजपा के प्रवक्ताओं को यह भी बताना चाहिए कि ईडी जिसे विपक्ष मैना बता रहा है वह क्या मैना से तोता बन गयी है। जो निचली अदालत का फैसला आने से भी पहले ई.डी. अदालत पहुंंच गयी कि उन्हे जमानत नहीं मिलनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि चुनाव के दौरान जिस तरह से विपक्षी दलों के नेताओं को ईडी और सीबीआई के अनावश्यक इस्तेमाल से जेल भेजा गया उनका मनोबल तोड़ने का काम किया गया। उनके खाते सीज किये गये और चुनाव आयोग में अपने अनुकूल नियुक्तियों से लेकर अन्य तमाम सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया वह किसी से छिपा नहीं है। जरूरत इस बात की है कि क्या देश की स्वायत्ता संस्थाओं को अपनी साख को लेकर सतर्क नही होना चाहिए? उनकी जिस तरह की छवि बीते समय में आम जनता के बीच बनी है वह वास्तव में न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है न खुद इन एजेंसियों के लिए अच्छा है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रहे इन एजेंसियों को अपनी इन तोता, मैना और बाज की छवि से बाहर आने की जरूरत है।