जाति धर्म की राजनीति कब तक?

0
101


अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से सभी खुश हैं। साधु—संत, महंत और उन तमाम राम भक्तों जिनके लिए राम से भी बड़ा उनका नाम है, उनकी खुशी स्वाभाविक है। जो सनातन धर्मी है जिनके आराध्या राम और कृष्ण है उनकी भी खुशी स्वाभाविक है जिन लोगों का नजरिया सर्व धर्म संभाव का रहा है उन्हें भी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण से आनंद की अनुभूति हो रही है भले ही वह किसी भी धर्म से ताल्लुक रखते हो यहां तक की ताउम्र बाबरी मस्जिद के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले इकबाल अंसारी का तो कहना है कि उनके मन में न कोई असंतोष है और न कोई विद्वेष, उन्हें अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के बाद अयोध्या का जो विकास हुआ है उसे लेकर अत्यंत खुशी है क्योंकि इसका फायदा हर एक अयोध्या वासी को होगा चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला क्यों न हो। वर्तमान में अयोध्या को देखकर वह बेहद खुश हैं साथ ही उनका कहना है कि मैं पक्का मुसलमान हूं। लेकिन मुझे अगर राम की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का न्योता मिला है तो जरूर जाऊंगा। भले ही राम सबके सही और सब राम की सही तथा राम और राम के नाम से किसी को भी बैर न हो लेकिन इन राम भक्तों में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो राम के नाम और राम मंदिर के निर्माण पर होने वाली राजनीति को लेकर दुखी और आहत है। उनका मानना है कि धर्म की राजनीति देश के समाज को जाति और धर्म के आधार पर बांटने का काम करती है इसलिए यह राजनीति बंद होनी चाहिए। भाजपा और कांग्रेस इस मुद्दे पर एक दूसरे पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते रहे हैं। अभी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का काम जारी है तथा प्राण प्रतिष्ठा की तैयारी है। इसके कार्यक्रमों की नियुक्ति से लेकर इसमें बुलाये जाने न बुलाये जाने अधूरे मंदिर निर्माण के बीच प्राण प्रतिष्ठा और न्योता स्वीकार करने और अस्वीकार करने तथा प्राण प्रतिष्ठा में शंकराचार्य के आने या शामिल न होने और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ही प्राण प्रतिष्ठा क्यों कराये जाने जैसे तमाम सवालों को लेकर खूब राजनीतिक तीर चलाये जा रहे हैं। जिस भी राजनीतिक दल के नेता के जो समझ में आता है कुछ भी बयान दे दिया जाता है। देश भर में भाजपा और उसके अनुसांगिक सहयोगी संगठनों द्वारा इस आयोजन को लेकर जिस तरह का माहौल तैयार कर दिया गया है वह यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा एक बार फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए राम रथ पर सवार हो चुकी है। इसका कितना चुनावी लाभ उसे मिलेगा इसका पता भले ही चुनाव परिणाम के बाद चले लेकिन उसकी अपेक्षाएं कम नहीं है। धर्मनिरपेक्ष प्रधानता वाले हमारे देश और संविधान में राजनीति तथा धर्म का जो घालमेल हो चुका है वह सामाजिक विकास और राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है सवाल यह है कि आखिर धर्म और राजनीति जो अलग—अलग मुद्दे और विषय हैं उन्हें अलग अलग कैसे रखा जा सकता है दूसरा सवाल जो हर आम आदमी के जहन में है कि आखिर देश के नेता और राजनीतिक दल कब तक मंडल और कमंडल की राजनीति से ऊपर आएंगे धर्म और राजनीति के संबंधों को लेकर भले ही समाज, नेताओं और राजनीतिज्ञों के विचार कुछ भी रहे हो लेकिन धर्म और राजनीति का उद्देश्य अगर जाति धर्म के आधार पर बंटवारा करना है तो वह न धर्म हो सकता है और न राजनीति उसे सिर्फ सत्ता के लिए किए जाने वाला अधर्म ही माना जा सकता है जो विकास के मार्ग में सिर्फ बाधा ही बन सकता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here