यमुनोत्री हाइवे पर निर्माणाधीन टनल का बड़ा हिस्सा धसने से 40 मजदूरों की जान संकट में फंसी हुई है। टनल में फंसे इन श्रमिकों की जान बचाने के लिए आज तीसरे दिन भी रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है। गनीमत इस बात की है कि अभी तक इन सभी के सुरक्षित होने की बात कहीं जा रही है लेकिन जब तक इन्हें बाहर नहीं निकाला जाता तब तक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं है। सुरंग में फंसी इन जिंदगियों को बचाना ही अब सर्वाेच्च प्राथमिकता है। यह हादसा क्यों हुआ? इसके क्या कारण है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है अभी इन सवालों पर विचार करने का समय नहीं है लेकिन आये दिन पेश आने वाले इन हादसों के पीछे निर्माण कार्यों में बरती जाने वाली लापरवाही को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह सुरंग के निर्माण के समय होने वाला कोई पहला हादसा है। इससे पूर्व टिहरी, रैणी और शिवपुरी में भी इस तरह के हादसे पेश आ चुके हैं। अभी 3 महीने पहले ऋषिकेश—कर्ण प्रयाग रेलवे लाइन के लिए बनाई जा रही टनल में शिवपुरी के पास अतिवृष्टि से जल भराव के कारण 114 कर्मचारी और मजदूर फंस गए थे। बचाव राहत दल ने कई घंटे की कड़ी मेहनत के बाद इन्हें बाहर निकाला था। इससे पहले रैणी ऋषि गंगा पर बनने वाली परियोजना की सुरंग के बाढ़ और गाद की चपेट में आने से 309 लोगों की जान चली गई थी। जिसमें से सिर्फ 105 लोगों के शव बरामद हो सके थे तथा 204 लोग अभी तक लापता है। वही 2004 में टिहरी में टनल 3 के धंस जाने से जो हादसा हुआ था उसमें 29 लोगों की जान चली गई थी। उत्तरकाशी में जो हादसा हुआ है उसके कारण क्या रहे यह आने वाले समय में ही पता चल सकेगा लेकिन प्रारंभिक दौर में अभी यही कहा जा रहा है कि जल्दबाजी में कच्चा लेंटर खोले जाने से यह हादसा हुआ है इसके संकेत मिलने कई दिन पूर्व से ही शुरू हो गए थे। भले ही विशेषज्ञों के पास इस समय कहने के लिए बहुत कुछ है वह पहाड़ की उस जमीन का पूर्व परीक्षण और सर्वे को जरूरी बता रहे हैं जहां भी इस तरह के कार्य होने हैं या हो रहे हैं। वही सुरंग निर्माण में विस्फोट के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं और मैनुअल तकनीक से काम करने की वकालत की जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि इन तमाम बातों पर पहले ध्यान क्यों नहीं दिया जाता है। सुरंग निर्माण के काम में नीचे ऑक्सीजन की लाइन डालना अनिवार्य है तो यहां ऑक्सीजन लाइन के पाइप क्यों हटा दिए गए अगर पानी की पाइपलाइन नहीं होती जिससे अब इन फंसे मजदूर तक ऑक्सीजन पहुंचाई जा रही है तो अब तक इन मजदूरों की जान जा चुकी होती। सुरंग निर्माण जैसे अति संवेदनशील कामों में क्या इस तरह की लापरवाही बरती जानी चाहिए? एक मजदूर जो दुर्घटना से चंद मिनट पहले ही बाहर आया उसका कहना है कि सुंरग धंसने के संकेत कई दिन पहले से मिल रहे थे फिर ऐसी स्थिति में भी काम का जारी रखा जाना उचित था? अनेक सवाल है जिन पर आने वाले समय में चर्चा जरूर होगी। हिमालय और प्रकृति की अति संवेदनशीलता की बातें तो बहुत की जाती है लेकिन उसकी सुरक्षा और संवेदना के अनुकूल काम कोई नहीं किया जाता, यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। पहाड़ में अनियोजित तरीके से विकास की जो पटकथा वर्तमान में लिखने का काम किया जा रहा है वह वास्तव में पहाड़ व प्रकृति के विनाश का कारण बन रहा है। जोशीमठ की भू धसांव की घटना इसका प्रत्यक्ष और ताजा उदाहरण है। अगर इस विनाश और दुर्घटनाओं को रोकना है तो इस पर नए सिरे से चिंतन मंथन भी जरूरी है।