राजनीति का तुष्टिकरण

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बीते 4—5 दशकों से हमारे देश की राजनीति मंडल और कमंडल के इर्द—गिर्द ही चक्कर काट रही है। भले ही हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा दलित, कमजोर और पिछड़े वर्ग को सामाजिक विकास की मुख्य धारा में लाने की अवधारणा के तहत आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया हो लेकिन आरक्षण को सामाजिक व्यवस्था में सुधार की बजाय राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा एक राजनीतिक औजार के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है। तत्कालीन स्व. प्रधानमंत्री बी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों की धूल भी इसलिए नहीं झाड़ी गई कि इससे देश में दलित, कमजोर और गरीबों का आर्थिक और सामाजिक उत्थान हो सकेगा। या वह समाज में बराबरी का अधिकार हासिल कर सकेंगे उनका उद्देश्य भी मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने के पीछे यही था कि वह इस वर्ग का प्रतिनिधि नेता के रूप में स्थापित होकर आजीवन देश की सत्ता में बने रहेंगे। यह अलग बात है कि उनकी यह मंशा चंद दिनों में काफुर हो गई थी लेकिन इसके बाद देश में आरक्षण की जो आग सुलगना शुरू हुई वह आज तक भी नहीं बुझ सकी है। आरक्षण के मुद्दे पर आंदोलनों, तोड़फोड़ और हिंसा का जो तांडव जारी है वह कब और कैसे रुकेगा? इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर वर्तमान में जो कुछ हो रहा है वह इसका ताजा उदाहरण है। आरक्षण की इस आग ने पूरे समाज को झुलसाने और विभाजित करने का काम तो किया ही है इसके साथ ही इस आरक्षण से किसी भी गरीब, पिछड़े या जाति को कोई भला नहीं हुआ है। अगर इसका कुछ लाभ हुआ है तो आरक्षण की व्यवस्था शुरू होने से इसका लाभ मिलने वाली जातियों और समुदायों के लोगों की स्थिति आज भी जस की तस नहीं बनी हुई होती। खास बात यह है कि पूरे विश्व में एक हिंदुस्तान ही ऐसा देश है जहां आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था लागू है। संविधान में इस व्यवस्था को अनिश्चितकाल तक बनाए रखने की बात भी नहीं कही गई है। लेकिन यहां इस व्यवस्था को चिरस्थाई अपना संवैधानिक अधिकार उन जातियों और समुदायों द्वारा मान लिया गया है जिन्हें इसका लाभ लंबे समय से मिलते आ रहा है। सत्ता में बैठे लोग जातीय वर्गीकरण का दायरा तो बढ़ाते रहे हैं लेकिन किसी की मजाल नहीं है कि वह किसी का आरक्षण समाप्त करना तो दूर उसमें आंशिक कमी भी कर दे। हिंदुस्तान जिसकी सामाजिक संरचना ही विभिन्न जातियों के आधार पर हुई है। यह जातियां आधार ही जब देश के राजनीतिक दलों की राजनीति का आधार बन चुकी है तब फिर इसे भला कैसे समाप्त किया जा सकता है। धर्म, जाति, मजहब और उनके धार्मिक स्थल तथा प्रतीकों को लेकर अगर नेता व राजनीतिक दल तुष्टिकरण की राजनीति में गर्क हो चुके हैं तो फिर इस सामाजिक विभाजन की आग को भला कैसे बुझाया जा सकता है। देश में जो रेवड़ियों की राजनीति का प्रचलन बढ़ा है उसका आधार ही अगड़े पिछड़ों से ही शुरू होता है। हास्यास्पद बात यह है कि आरक्षण और धार्मिक मुद्दों की इस राजनीतिक फिजा में कोई इसके हानि लाभ पर विचार विमर्श तक को तैयार नहीं है। एससी—एसटी, ओबीसी, मंदिर मस्जिद, हनुमान चालीसा, नमाज वर्तमान दौर में सब राजनीति के प्रखर मुद्दे बन चुके हैं भले ही वह देश और देश के समाज को कहीं भी ले जा रहे हो इससे देश के नेताओं और राजनीतिक दलों का भी कुछ भला होने वाला नहीं है। यह समझने की बात है।

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