आज हमारे देश में विजयदशमी का पर्व मनाया जा रहा है। धर्म शास्त्रों के अनुसार आज ही के दिन भगवान राम ने रावण का वध किया था। असत्य पर सत्य की जीत के रूप में तभी से हम इस दिन को विजयदशमी के रूप में मनाते आ रहे हैं। हम सभी के अंदर एक राम विद्वमान है जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है तथा एक रावण भी मौजूद है जिसे बुराई का प्रतीक और राक्षस के रूप में जाना जाता है। हर एक इंसान के कृतित्व और व्यक्तित्व के आधार पर ही वह राम या रावण का प्रतिनिधित्व का अधिकारी होता है। हमारे समाज में यह एक प्रचलित सत्य है की सत्य की कभी हार नहीं होती है और असत्य कभी सत्य से जीत नहीं सकता है अगर हम अपनी न्यायिक व्यवस्था के मूल मंत्र पर गौर करें तो वह भी सत्यमेव जयते पर ही आधारित है। हम सभी ने अपनी प्राइमरी पाठशाला में गांधी जी के तीन बंदरों वाली वह तस्वीर जरूर देखी होगी जिनके नीचे लिखा है बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, यह सिद्धांत बुराइयों से बचाने के तरीके समझ जाते हैं। लेकिन वर्तमान कालखंड जिसे कलयुग कहा जाता है, आप जिधर भी नजर दौड़ाएंगे आपको अच्छाइयों पर बुराइयां ही हावी होती दिखेंगी। धर्म जिसे मानव मूल्यों की रक्षा के लिए बनाया गया उसका इस्तेमाल जिस तरह अधर्म कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है वह जग जाहिर है देश ही नहीं आज पूरे विश्व में धर्म के नाम पर नफरत और हिंसा फैलाने का प्रयास किये जा रहे है उसके तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। बात चाहे इजरायल युद्ध की हो या फिर रूस और यूक्रेन युद्ध की, उनकी पृष्ठभूमि में अगर सांप्रदायिकता और वर्चस्व का सच नहीं है तो और क्या है? रूस और यूक्रेन के बीच सालों लंबा चलने वाला यह युद्ध और उसमें तबाह हुए लोगों के लिए मानवता और मानवीय मूल्यों की बात कितनी बड़ी बेमानी है। यही नहीं इसराइल पर हमास के हमले और उसके जवाब में इजरायल द्वारा गाजा पर की जाने वाली कार्यवाही में मरने वाले मासूम बच्चों और महिलाओं या लहूलुहान होने वाली इंसानियत के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। विश्व पटल पर इन दिनों जो कुछ भी चल रहा है उसने पूरे विश्व को एक बार फिर विश्व युद्ध की देहरी पर लाकर खड़ा कर दिया है। बात अगर अपने देश की की जाए तो यहां भी भले ही कोई प्रत्यक्ष युद्ध न लड़ा जा रहा हो लेकिन जातीय व धार्मिक आधार पर खींची जाने वाली लकीरें अब इतनी गहरी हो गई है कि सर तन से जुदा करने और गौ रक्षा के नाम पर लोगों को जिंदा जला देने वाली घटनाएं आम हो चुकी है। नफरतीय हिंसा की एक और तस्वीर अभी हमने मणिपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान भी देखी थी। सवाल यह है कि आज हर तरफ हिंसा और नफरत का जो वातावरण तैयार हो रहा है उस रावण को कौन दहन करेगा। कौन है वह रावण जिसने हमारे देश और समाज ही नहीं पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले रखा है? वह कोई और नहीं है हम या हमारे बीच के लोग ही हैं। भले ही हमारे पर्वों को मनाए जाने की महत्ता यह हो कि हमारी भावी पीढ़ी उनके इतिहास और उद्देश्यों को समझ सके लेकिन आज इस बात की सबसे अधिक जरूरत है कि हम अपने अंदर के रावण का दहन करें और अपने अंतर्मन के उस राम को जो मर्यादा पुरुषोत्तम है जीवन्त बनाएं जिसने इस दुनिया को मानवता का उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया। रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के कागजी पुतलो को जलाने का कर्मकांड तो हम सदियों से करते आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे लेकिन अपने अंदर के रावण का दहन कर हम कैसे सुखद और शांतिपूर्ण समाज की स्थापना कर सकते हैं जिसमें हमारी भावी संताने सुखचैन और शांति के साथ रह सके। इस पर विचार मंथन की जरूरत आज हर मनुष्य को है।