कहा जाता है कि राजनीति और प्रेम में कुछ भी नाजायज नहीं होता है सत्ता राजनीति का एकमात्र उद्देश्य है तथा जिसकी लाठी उसकी भ्ौंस सत्ता का एक नैसर्गिक गुण है। मोदी उपनाम को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी के साथ जो कुछ हुआ है या हो रहा है वह कितना उचित या अनुचित है इस मुद्दे पर आज देश में चर्चा हो रही है। कल देशभर के कांग्रेसी नेताओं ने मुंह पर पटृी बांधकर इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। सत्तापक्ष और राहुल गांधी तथा कांग्रेस का विरोध करने वाले लोग इसे लेकर खुश भले ही हो रहे हो या फिर इसे उचित और संवैधानिक रूप से सही ठहरा रहे हो लेकिन उनकी यह सोच इसलिए सही नहीं हो सकती है कि आने वाले दिनों में यह एक नजीर के तौर पर देखा जाएगा और राजनीति में एक ऐसी परिपाटी की शुरुआत हो जाएगी जो नेताओं के लिए बड़ा सरदर्द बन सकती है। क्योंकि मोदी के उपनाम को लेकर जिस तरह की टिप्पणी राहुल गांधी द्वारा 2019 में की गई थी वैसी टीका—टिप्पणी या उससे भी अधिक जहरीले बयान देना आज देश के नेताओं की रिवायत बन चुका है। भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, सांसद और विधायक कोई भी इस भाषाई अभद्रता के रोग से अछूता नहीं है किस नेता की जुबान से कब कुछ ऐसा निकल जाए जिसे सुनकर कानों पर हाथ रखना पड़े इसका कोई भरोसा नहीं रह गया है अगर राहुल गांधी जिनकी लोकसभा सदस्यता इस मामले को लेकर छीनी जा चुकी तथा उनका सरकारी बंगला खाली कराया जा चुका है अगर उन्हें सुप्रीम कोर्ट से भी सजा को बरकरार रखने का फैसला सुनाया जाता है तो राहुल गांधी को न सिर्फ जेल जाना पड़ेगा बल्कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। सवाल यह है कि सत्ता पक्ष या उनके समर्थक जो राहुल गांधी के खिलाफ यह स्वाभिमान की जंग लड़ रहे हैं क्या वह नहीं जानते कि आज राजनीति में हर दूसरा नेता आए दिन ऐसा अपराध करता है जिसकी सजा वह राहुल गांधी को दिलवाने की कोशिश कर रहे हैं। आज से पहले देश के इतिहास में किसी और के खिलाफ ऐसी कार्रवाई क्यों नहीं की गई है। लेकिन इन लोगों को यह जरूर समझ लेना चाहिए कि अगर राहुल गांधी के साथ ऐसा हुआ तो आने वाले समय में इस तरह के अपराध करने के मामले में सजा भोगने वाले अकेले राहुल गांधी नहीं होंगे इनकी फेहरिस्त बहुत लंबी होगी। देश की राजनीति में संवैधानिक मर्यादाओं को लांघने वाले और संसदीय तथा शिष्ट भाषा को खूंटी पर टांग देने वालों की कोई कमी नहीं है। उसके लिए किसी उदाहरण की जरूरत नहीं है। अच्छा होता कि देश के नेता इससे सबक लेते और शिष्टआचरण का संकल्प लेते जिससे राजनीति में सहिष्णुता का एक नया अध्याय शुरू होता। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की ऐसी कोई मंशा दिखाई नहीं दे रही है। रही बात कांग्रेस के मौन प्रदर्शन की तो अब न दांडी मार्च का और न सत्याग्रह करने का दौर रहा है तथा न मौन प्रदर्शनों का। क्योंकि देश की राजनीति असंवेदनशीलता की सारी हदें लंाघ चुकी है किसी भी आंदोलन प्रदर्शन का कोई असर आज के सियासतदानों पर नहीं होता है। महिला रेसलर और किसान आंदोलन इसके प्रमाण हैं। इसलिए कांग्रेस अगर इस छीछालेदरी से बचना चाहती है तो उसका एकमात्र रास्ता सुप्रीम कोर्ट में मजबूती से अपना पक्ष रखना ही शेष बचा है।