कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद 5 दिनों तक चली लंबी खींचतान के बाद आखिरकार आज कांग्रेस हाईकमान द्वारा पूर्व सीएम सिद्धरमैया को ही मुख्यमंत्री पद की जिम्मेवारी सौंपने का ऐलान कर दिया गया है। सवाल यह है कि इस फैसले को लेने में इतना लंबा समय क्यों लगा? जबकि संविधान में बड़ी साफ व्यवस्था है जिस भी दल को जनादेश मिले उसके विधायक सर्वसम्मति से या फिर गोपनीय मतदान से नेता का चुनाव करें और जो भी नेता चुना जाए वह राज्यपाल के पास जाकर सरकार गठन का दावा पेश करें और राज्यपाल मुख्यमंत्री और उसके कैबिनेट के सहयोगियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलवाये तथा नई सरकार अपना काम शुरू कर दे। लेकिन अब कोई भी दल इस व्यवस्था के अनुकूल काम नहीं कर रहा है। नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के कारण कई लोग सीएम पद के दावेदार बन जाते हैं और फिर फैसला हाईकमान पर छोड़ दिया जाता है हाईकमान भी किसे पद सौंपे इस असमंजस्य में फंसा रहता है कि कहीं दूसरों की नाराजगी पार्टी में मतभेद और फूट का कारण न बन जाए और आमतौर पर ऐसा होता भी है। जब जीत के बाद भी पार्टी को सत्ता से बाहर होना पड़ता है आज सभी राष्ट्रीय दलों की यह एक गंभीर समस्या है। यह समस्या उस समय और भी अधिक गंभीर हो जाती है जब कोई दल केंद्रीय सत्ता से बाहर होता है और जीतने का माद्दा उस दल के अंदर नहीं होता है जैसा कर्नाटक में था और हिमाचल प्रदेश में था। देश में सत्ता का चीर हरण होने की तमाम घटनाओं पर अगर गौर करें तो यही बात सामने आती है कि हाईकमान के फैसले को भले ही कुछ समय के लिए दूसरे नेता स्वीकार कर भी लें लेकिन कुछ ही समय बाद उनमें विवाद सामने आने लगते हैं जैसा कि मध्यप्रदेश में हुआ था या फिर इन दिनों राजस्थान में होता दिख रहा है। बीते नौ सालों में इन हाईकमान के फैसलों का सबसे ज्यादा बड़ा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ है। आज अगर कांग्रेस की हालत इतनी कमजोर हो गई है तो उसके पीछे यह भी एक अहम कारण है। हमने 2012 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के बाद भी ऐसी ही स्थिति देखी थी जिसके कारण दो मुख्यमंत्री बदले गए और कांग्रेस को बड़े विभाजन से दो चार होना पड़ा था। जिसका खामियाजा उत्तराखंड कांग्रेस आज तक भुगत रही है। यह हाल किसी एक राज्य का नहीं है आज भले ही कर्नाटक चुनाव की जीत पर कांग्रेसी पूरे देश में जीत का ढोल पीट रहे हो लेकिन कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार जिनके अथक प्रयासों से कांग्रेस को यह जीत मिली उसके बाद भी सिद्ध रमैया को कुर्सी सौंप दी गई ऐसी स्थिति में बंपर जीत के बाद भी कांग्रेस यहां एक स्थिर सरकार दे पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है कल यहां भी राजस्थान और एमपी जैसी स्थितियां पैदा होना आश्चर्यजनक नहीं होगा। इस जीत को जो कांग्रेसी बड़ा सबक व बड़ा संदेश के तौर पर देख रहे हैं उन्हें भी अपने अंत करण को टटोलकर देखना चाहिए कि वह पार्टी के हितों के लिए अपने स्वार्थों को कितना त्यागने को तैयार हैं? अगर कांग्रेस के नेता इसके लिए तैयार नहीं है तो कर्नाटक की इस जीत का तथा आने वाले दिनों में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें जीत का दावा करने का कोई औचित्य नहीं है कांग्रेस के लिए फिर हार और जीत दोनों बराबर ही है।