आरक्षण की राजनीति

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आरक्षण का मुद्दा एक विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है जो सीधे—सीधे वोट की राजनीति से जुड़ा हुआ है। बीते कल गैरसैंण में हुई कैबिनेट बैठक में राज्य आंदोलनकारियों के 10 फीसदी क्ष्ौतिज आरक्षण पर सरकार ने अपनी मुहर लगा दी है भले ही पूर्व समय में सरकार के इस प्रस्ताव को राजभवन ने वापस भेज दिया हो लेकिन अब सरकार द्वारा इस मुद्दे पर गठित की गई मंत्रिमंडलीय उप समिति के सुझावों के आधार पर संशोधन कर इस प्रस्ताव को दो बार पास कर दिए जाने के बाद उम्मीद है कि राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था हो ही जाएगी तथा अब राज्यपाल भी इस पर अपनी मंजूरी की मोहर लगा देंगे और राज्य के आंदोलनकारी जो 2011 से इस आरक्षण सुविधा से महरूम थे उन्हें फिर से यह सुविधा मिल सकेगी। तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार द्वारा राज्य आंदोलनकारियों के लिए यह विशेष सुविधा प्रदान की गई थी लेकिन हाईकोर्ट ने इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए आंदोलनकारियों के आरक्षण पर रोक लगा दी गई थी। कानूनी पेचीदगियों में फंसे इस मुद्दे पर अब धामी सरकार ने गंभीरता दिखाते हुए एक प्रस्ताव के जरिए आंदोलनकारियों को 10 फीसदी आरक्षण की इस सुविधा को फिर से बहाल कर दिया गया है। यह स्वाभाविक ही है बीते एक दशक से राज्य के आंदोलनकारी जो अपने आरक्षण बहाली की लड़ाई लड़ रहे थे वह इस फैसले से खुश ही होंगे। लेकिन अब इस पर आगे कोई राजनीति नहीं होगी इसकी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि 2016 में भी हरीश रावत सरकार द्वारा विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर राजभवन भेजा गया जो 2021 तक लटका रहा। खैर देखना होगा कि राज्य के 12 हजार चिन्हित आंदोलनकारियों को इस आरक्षण का लाभ कब से मिल पाता है। लेकिन धामी सरकार ने आंदोलनकारियों के पक्ष में फैसला कर उन्हें फिलहाल खुश कर दिया है और वह सीएम धामी की जय जयकार कर रहे हैं। अभी बीते दिनों राज्य सरकार की पहल और पैरवी पर राज्य की महिलाओं को 30 फीसदी आरक्षण दिए जाने का रास्ता भी साफ हो चुका है। यह विडंबना ही है कि जिन लोगों ने राज्य प्राप्ति के लिए लड़ी गई लंबी लड़ाई में तमाम तरह की कुर्बानियां दी उन्हें राज्य गठन के बाद भी कई तरह की लड़ाईयां लड़नी पड़ रही है। राज्य गठन के बाद भी राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण तक का काम पूरा नहीं किया जा पाना और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ निशंक का नाम राज्य आंदोलनकारियों की सूची में शामिल किया जाना और फिर हटा दिया जाना, ऐसी घटनाएं हैं जो राज्य आंदोलनकारियों के नाम और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं पर होने वाले तमाशे की साक्षी हैं। अब इस 10 फीसदी आरक्षण के बाद राज्य में 37 फीसदी लंबवत आरक्षण व 61 फीसदी क्ष्ौतिज आरक्षण हो चुका है जो कुल जमा 98 फीसदी है। सवाल यह है कि वोट की राजनीति के लिए दिए जाने वाले इस आरक्षण की आखिर अंतिम सीमा क्या है? अभी भी राज्य में तमाम असल ऐसे आंदोलनकारी हैं जो वास्तव में इस लड़ाई का हिस्सा रहे मगर न वह आंदोलनकारियों की सूची में शामिल है न उन्हें किसी आरक्षण की दरकार है जबकि नकली आंदोलनकारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं जो सर्वथा अनुचित है।

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