धार्मिक विभाजन की राजनीति

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धर्म की राजनीति से बड़ा अधर्म भला और क्या हो सकता है? लेकिन इससे बड़ी विडंबना भी कोई नहीं हो सकती की स्वतंत्रता को 75 सालों में देश के नेता जाति धर्म की राजनीति से दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सके हैं। उनके लिए हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा तथा चर्च ही नहीं धार्मिक ग्रंथ और रंग तक राजनीतिक मुद्दे बनकर रह गए हैं। अभी हाल ही में एक फिल्म के गाने में बेशर्म भगवा को लेकर जो देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए वह इसकी एक बानगी भर है। सपा के महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा रामचरित मानस पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर इन दिनों सियासी संग्राम छिड़ा हुआ है। इसे लेकर स्वामी प्रसाद के खिलाफ एक एफआईआर हजरतगंज लखनऊ थाने में दर्ज हो चुकी है। इसके बाद भी उनके समर्थकों द्वारा रामचरितमानस की प्रतियां फाड़ने, जलाने और पैरों तले रौंदने पर अब 10 लोगों के खिलाफ कई गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज हो चुका है। भले ही स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके समर्थकों को यह पता हो कि उनके इस कुकृत्य से न राम का अस्तित्व कम हो सकता है न रामचरितमानस की महत्वता को आंच आ सकती है लेकिन ऐसी घटिया हरकतों से समाज में सांप्रदायिकता की आग जरूर लग सकती है। सही मायनों में इस तरह की निकृष्ट और छिछोरी हरकतों का मकसद सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता फैलाना और समाज के सद्भाव को समाप्त करना और एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ लड़ाने के अलावा और कुछ भी नहीं है। इसके पीछे उनका मकसद क्या है? इसे बड़े आसानी से समझा जा सकता है। सिर्फ दलित और पिछड़ों के वोटों के ध्रुवीकरण के लिए अगर कोई दल और नेता समाज में नफरत का जहर फैलाने और सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की कोशिश करता है तो उससे बड़ा समाज और देश का दुश्मन भला कौन हो सकता है। जिस देश का संविधान सभी धर्मों को समानता और सम्भाव की पैरोकारी करता हो उस देश में इस तरह के कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। सवाल यह कि स्वामी प्रसाद को यह अधिकार किसने दिया है कि वह किसी भी धर्म और धार्मिक ग्रंथ के बारे में टीका टिप्पणी करें या यह बताएं कि क्या गलत है और क्या सही है? स्वामी प्रसाद मौर्य का रामचरितमानस पर दिया गया बयान और उनके समर्थकों द्वारा प्रतियों को फाड़ने या जलाने का जो काम किया गया है वह एक सोचा समझा षड्यंत्र है। मुश्किल यह बात है कि ऐसे लोगों को सबक सिखाने में हमारे देश के कानून उतने प्रभावी नहीं हैं जितने होने चाहिए थे। यही कारण है कि जिस भी नेता के मन में जो आता है वह किसी भी धर्म और समुदाय के खिलाफ कुछ भी बकवास करने लगता है। आज बसपा सुप्रीमो मायावती भी मौर्य के बयान की भर्त्सना कर रही है, यही मायावती कभी स्वयं भी ट्टतिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार, का नारा लगाती थी। अभी बीते दिनों सर तन से जुदा के नारे ही नहीं बल्कि सर तन से जुदा करने की घटनाओं से भी हम रूबरू हुए थे किसानों के आंदोलन के समय पंजाब में एक युवक की नृशंस हत्या का मामला सामने आया था पता चला कि एक धर्म विशेष का अपमान करने पर उनकी हत्या की गई। सभी राजनीतिक दल और नेता जानते हैं कि वोटों के ध्रुवीकरण का इससे सरल तरीका कोई नहीं है। समाज को कैसे बंाटा जाता है और कैसे अपना राज्य स्थापित किया जा सकता है इस फन में माहिर इन नेताओं के पास देश व समाज हित की कोई योजना नहीं है तो इन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि अब तक गंगा जमुना में बहुत पानी बह चुका है यह काठ की हांडी अब उनकी खिचड़ी नहीं पकने देगी। समाज व देश को तोड़ने वाली हरकतों से वह बाज आएं इसी में उनकी भलाई है।

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